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________________ १०४ ] पच्चाध्यायी 1 क्या अपूर्ण न्याय के समान हैं अथ किमुदासीनतया वक्तव्यं वा यथारुचित्वान्न । यदपूर्णन्यायादप्यन्यतरेणेह साध्यसंसिद्धेः । ३५५ । अर्थ — अथवा जिस प्रकार अपूर्ण न्यायसे एकका मुख्यतासे ग्रहण होता है और दूसरेका गौणरीतिसे ग्रहण होता है। गौणरीतिसे ग्रहण होनेवालेका विवेचन रुचिपूर्वक नहीं होता है किन्तु उदासीनतासे होता है । उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम हैं ? अथवा जिस प्रकार अपूर्ण न्यायसे पुकारे हुए दो नामोंमेंसे किसी एकसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार क्या सत् और परिणाममेंसे किसी एकसे ही साध्यकी ( पदार्थकी ) सिद्धि होती है ? [ प्रथम क्या मित्रों के समान हैं ―― अथ किमुपादानतया स्वार्थ सृजीत कश्चिदन्यतमः । अपरः सहकारितया प्रकृतं पुष्णाति मित्रवत्तदिति ॥ ३५९ ॥ अर्थ- - अथवा जिस प्रकार एक पुरुष किसी कार्यको स्वयं करता है, उसका मित्र उसे उसके कार्य में सहायता पहुंचाता है, मित्रकी सहायता से वह पुरुष अपने कार्यमें सफलता कर लेता है उसी प्रकार क्या सत् और परिणाममें एक उपादान होकर कार्य करता है, दूसरा उसका सहायक बनकर पदार्थ सिद्धि कराता है ? क्यों आदेश के समान हैं शत्रु वदादेशः स्यात्तद्वत्तद्द्वैतमेव किमिति यथा । एकं विनाश्य मूलादन्यतमः स्वयमुदेति निरपेक्षः ॥ ३५७ ॥ अर्थ- - अथवा जिस प्रकार शत्रुके समान आदेश होता है जो कि पहलेको सर्वथा हटाकर उसके स्थान में स्वयं ठहरता है उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम भी हैं ? सत्को सर्वथा नष्ट कर कभी स्वयं परिणाम होता है और परिणामको सर्वथा नष्ट कर कभी स्वयं सत् उदित होता है ? क्या दो रज्जुओंके समान हैं अथ किं वैमुख्यतया विसन्धिरूपं द्वयं तदर्थकृते । वामेतरकरवर्त्तितरज्जू युग्मं यथास्वमिदमिति चेत् ॥ ३५८ ॥ अर्थ- -अथवा जिस प्रकार छाछ विलोते समय दाँये वाँये हाथमें रहनेवालीं दो रस्सियां परस्पर विमुखतासे अनमिल रहती हुई कार्यको करती हैं उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम भी परस्पर विमुख रहकर ही पदार्थकी सिद्धि कराते हैं ? * जैसे ब्याकरणमें बतलाया जाता है कि छ को तुक् हो तो यदि तु आदेशरूपसे होगा तब तो छ के स्थान में होगा । यदि आगमरूपसे होगा तो छ के स्वासन्न ( पास में) होगा ! इसलिये आदेश शत्रुके समान और आगम मित्र के समान होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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