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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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अर्थ - तथा जिस समय पदार्थपर दृष्टि नहीं रक्खी जाती केवल उसके परिणामपर ही दृष्टि रक्खी जाती है उस समय वस्तुमें नवीन भाव और पुराने भावकी प्राप्ि होनेसे वस्तु अनित्यरूप प्रतीत होती है । यहां पर केवल वस्तुके परिणाम अंशको ग्रहण किया गया है, ऊपर उसके द्रव्य अंशको ग्रहण किया गया है । वस्तुके एक देशको ग्रहण करने वाला ही नय है । यहां पर शङ्काकार १८ श्लोकों द्वारा सत् और परिणामके विषयमें अपनी नाना कल्पनाओं द्वारा शङ्का करता है ।
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ननु चैकं सदिति यथा तथा च परिणाम एव तद् द्वैतम् । वक्तुं क्षममन्यतरं क्रमतो हि समं न तदिति कुतः ॥ ३४९ ॥ अर्थ --- जिस प्रकार एक सत् है उसी प्रकार एक परिणाम भी है, इन दोनोंमें स्वतन्त्र रीति से द्वैत भाव है । फिर क्या कारण है कि उन दोनोंमेंसे एकका क्रमसे ही कथन किया जाय, दोनोंका कथन समानतासे एक साथ क्यों नहीं किया जाता । भावार्थ- जव और परिणाम दोनों ही समान हैं तो फिर वे क्रमसे क्यों कहे जाते हैं, स्वतन्त्र रीति से एक साथ क्यों नही ?
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सत्
क्या सत् और परिणाम वर्णोंकी ध्वनिके प्रमान ६---
अथ किं करवादिवर्णाः सन्ति यथा युगवदेव तुल्यतया । वक्ष्यन्ने क्रमतस्ते क्रमवर्तित्वादूध्वनेरिति न्यायात् ॥ ४४२ ॥ अर्थ-सत् और परिणाम क्या क, ख आदि वर्णोंके समान दोनों बराबर हैं । जिस प्रकार क, ख आदि सभी वर्ण एक समान हैं परन्तु वे क्रमसे बोले जाते हैं, क्योंकि ध्वनिउच्चारण क्रमसे ही होता है अर्थात् एक साथ दो वर्णोंका उच्चारण हो नहीं सक्ता । क्या इस न्यायसे सत् और परिणाम भी समानता रखते हैं और वे क्रमसे बोले जाते हैं ?
क्या विन्ध्य हिमाचल के समान हैं—
अथ किं खरतरदृष्ट्या विन्ध्यहिमाचलयुगं यथास्ति तथा भवतु विवक्ष्यो मुख्यो विवक्तुरिच्छावशाद्गुणोऽन्यतरः ॥४४३॥
अर्थ — अथवा जिस प्रकार विन्ध्य पर्वत और हिमालय पर्वत दोनों ही स्वतन्त्र हैं परन्तु दोनोंमें वक्ता की इच्छासे जो तीक्ष्णदृष्टिसे विवक्षित होता है वह मुख्य समझा जाता है और दूसरा अविवक्षित गौण समझा जाता है। क्या सत् और परिणाम भी इसी प्रकार स्वतन्त्र हैं, और उन दोनोंमें जो विवक्षित होता है वह मुख्य समझा जाता है तथा दूसरा गौण समझा जाता है ?
क्या सिंह साधु विशेषणांक समान हैं
अथ चैकः कोपि यथा सिंहः साधुर्विवक्षितो देवा । सत्परिणामोपि तथा भवति विशेषवित् किमिति ॥ ३४४
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