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________________ ~ ~~~ ~~ ~ ~ ~ ~ ९८ पञ्चाध्यायी। [प्रथम wwwwco ..mmmmmmmmmmm अर्थ-यदि वस्तुके पहले सर्वथा पद जोड़ दिया जाय तब तो वह स्वपर दोनोंकी विघातक हैं । यदि उसके पहले स्यात् पद जोड़ दिया जाय तब वही स्वपर दोनोंकी उपकारक है । भावार्थः-वस्तु अनन्त धर्मात्मक है इसलिये विवक्षावश उसमें एक धर्म मुख्य इतर गौण हो जाता है । इस गौण और मुख्यकी विवक्षामें ही पदार्थ कभी किसीरूप और कभी किसी रूप कहा जासकता है परन्तु मुख्य गौणकी विवक्षाको छोड़कर सर्वथा एकान्तरूप ही पदार्थको माननेसे किसी पदार्थकी सिद्धि नहींहो पाती, इसलिये पदार्थ कथञ्चित् द्रव्य दृष्टिसे नित्यरूप भी है कथंचित् पर्याय दृष्टिसे अनित्यरूप भी है कथंचित् प्रमाण दृष्टिसे उभयरूप भी है, कथंचित् नय दृष्टिसे अनुभयरूप भी है, अथवा बचनागो, चर होनेसे भी अनुभयरूप है । कथंचित् भेद विवक्षासे व्यस्तरूप भी है, कथंचित अभेद विवक्षासे समस्तरूपभी है कथञ्चित् वचन विवक्षासे क्रमरूपभी है और कथंचित वचनकी अविवक्षासे अक्रमरूप भी है इस प्रकार वस्तुके साथ स्यात् पद, लगा देनेसे सभी बातें बन जाती हैं । विवक्षानुसार कुछ भी कहा जा सकता है परन्तु स्यात् पदको वस्तुसे हटाकर उसके साथ सर्वथा पद लगा देनेसे पदार्थ ही स्वरूप लाभ नहीं कर सक्ता है । सारांश अनेकान्त दृष्टिसे सब ठीक है, एकान्त दृष्टिसे एक भी ठीक नहीं है । उसीका खुलासाअथ तद्यथा यथा सत्स्वतोस्ति सिद्धं तथा च परिणामि । इति नित्यमथानित्यं सच्चैकं द्विस्वभावतया ॥ ३३८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार पदार्थ स्वयं सिद्ध है, उसी प्रकार उसका परिणमन भी स्वतः सिद्ध है। अर्थाः परिणमनशील ही पदार्थ अनादि निधन है । वह सदा रहता है अर्थात् वह अपने स्वरूपको कभी नहीं छोड़ता है इस दृष्टि से वह नित्य भी है, और प्रतिक्षण वह बदलता भी रहता है अर्थात् एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें आया करता है इस दृष्टिसे अनित्य भी है । इस प्रकार एक ही पदार्थ दो स्वभाव वाला है । नित्य दृष्टिअयमों वस्तु यदा केवलमिह दृश्यते न परिणामः । नित्यं तदव्ययादिह सर्व स्यादन्वयार्थनययोगात् ॥ ३३९ ॥ अर्थ-जिस समय निरन्तर एक रूपसे चले आये हुए पदार्थ पर दृष्टि रक्खी जाती है और उसके परिणामपर दृष्टि नहीं रक्खी जाती उस समय पदार्थ नित्य रूप प्रतीत होता है । क्योंकि उसका कभी नाश नहीं होता । __अनित्य दृष्टिअपि च या परिणामः केवलमिह दृश्यते न किल वस्तु । अभिनवभावानभिनवभावाभावादनित्यमंशनयात् ॥३४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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