________________
पश्चाध्यायी।
[प्रथम
अपि च निषिद्धत्वे सति नहि वस्तुत्वं विधेरभावत्वात् ।
उभयात्मकं ४ यदि खलु प्रकृतं न कथं प्रमीयेत ॥३०२॥ __ अर्थ:-ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यान्तर ( घट, पट) की तरह विधि, निषेध, दोनों ही सर्वथा भिन्न हों, सर्वथा नाम भेद भी इनमें बाधित ही है, क्योंकि सर्वथा विधिको कहनेसे वस्तु सर्वथा विधिमात्र ही हो जाती है, बाकीके विशेष लक्षणोंका उसमें अभाव ही हो जाता है। उसी प्रकार सर्वथा निषेधको कहनेसे उसमें विधिका अभाव होजाता है । इन दोनोंके सर्वथा भेदमें वस्तुकी वस्तुता ही चली जाती है। यदि वस्तुको उभयात्मक माना जाय तो प्रकृसकी सिद्धि होजाती है।
सारांशतस्मरिधिरूपं वा निर्दिष्टं सनिषेधरूपं वा । संहत्यान्यतरत्वादन्यतरे सन्निरूप्यते तदिह ॥ ३०३ ॥
अर्थ-जब यह बात सिद्ध होचुकी कि पदार्थ विधि निषेधात्मक है, तब वह कमी विधिरूप कहा जाता है, और कभी निषेधरूप कहा जाता है।
दृष्टान्तदृष्टान्तोऽत्र पटत्वं यावनिर्दिष्टमेव तन्तुतया । तावन्न पटो नियमाद् दृश्यन्ते तन्तवस्तथाऽध्यक्षात् ॥ ३०४ ।। यदि पुनरेव पटत्वं तदिह तथा दृश्यते न तन्तुतया।
अपि संगृह्य समन्तात् पटोयमिति दृश्यते सद्भिः ॥ ३०५ ॥
अर्थ-दृष्टान्तके लिये पट है । जिस समय पट तन्तुकी दृष्टिसे देखा जाता है, उस समय वह पट प्रतीत नहीं होता, किन्तु तन्तु ही दृष्टिगत होते हैं। यदि वही पट पटबुद्धिसे देखा जाता है, तो वह पट ही प्रतीत होता है, उस समय वह तन्तुरूप नहीं दीखता ।
इत्यादिकाश्च बहवो विद्यन्ते पाक्षिका हि दृष्टान्ताः।
तेषामुभयात्वान्नहि कोपिकदा विपक्षः स्यात् ॥ ३०६ ॥
अर्थ-पटकी तरह और भी अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं, जो कि हमारे पक्षको पुष्ट करते हैं, वे सभी दृष्टान्त उभयपनेको सिद्ध करते हैं, इसलिये उनमेंसे कोई भी दृष्टान्त कमी हमारा (जैन दर्शनका ) विपक्ष नहीं होने पाता है।
उपर्युक्त कथन का स्पष्ट अर्थभयमों विधिरेव हि युक्तिवशात्स्यात्स्वयं निषेधात्मा। अपि च निषेधस्तददिधिरूप: स्यात्स्वयं हि युक्तिवशात् ॥३०७॥ यहां पर किसी एक अक्षरके छूट जानेसे छन्दका भंग हो गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org