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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ ८९ (ग्रन्थकारका ) यह कहना कि व्यतिरेकके अभाव में अन्वय भी नहीं होता है, ठीक नहीं है, क्योंकि घट पटकी तरह हम यह कह सकते हैं कि अन्वय अपने स्वरूपसे जुदा है और व्यतिरेक अपने स्वरूपसे जुदा है, ऐसी अवस्थामें बिना व्यतिरेक के भी अन्वय हो सकता है ? भावार्थ - ऊपर कहे हुए कथन के अनुसार शङ्काकार अन्वयको स्वतन्त्र मानता है और व्यतिरेकको स्वतन्त्र मानता है । वस्तुको वह सापेक्ष उभय धर्मात्मक नहीं मानता है । 1 उत्तर- तत्र यतः सदिति स्यादद्वैतं वैतभावभागपि च । 1 तत्र विधौ विधिमात्रं तदिह निषेधे निषेधमात्रं स्यात् ॥ २९९ ॥ अर्थ :- शङ्काकारकी उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि सत् (द्रव्य) कथंचित् अद्वैत भी है, और कथंचित् द्वैत भी है। उन दोनोंमें विधिके विवक्षित होने पर वह सत् विधि मात्र है, और वही सत् निषे विवक्षित होनेपर निषेध मात्र है । भावार्थ- पदार्थ सामान्य विशेषात्मक अवा विधि निषेरात्मक है, जिस समय जो भाव विवक्षित किया जाता है, उस समय वह पदार्थ उसी भाव है। तुम अन्वय और व्यतिरेक स्वतन्त्र नहीं है- नहिं किंचिद्विधिरूपं किश्चिच्छेषतो निषेधांशम् । आस्तां साधनमस्मिन्नाम द्वैतं न निर्विशेषत्वात् । ३०० ॥ • अर्थ - ऐसा नहीं है कि द्रव्यका कुछ भाग तो विधिरूप है, और कुछ भाग निषेध - रूप है । इसमें द्वैत - हेतु भी नहीं हो सकता है, क्योंकि द्रव्य केवल विशेषात्मक ही नहीं है । भावार्थ - शङ्काकारने अन्वय और व्यतिरेक अथवा विधि और निषेधको स्वतन्त्र बतलाया था, इस श्लोक द्वारा उसीका खण्डन किया गया है । यदि विधि और निषेवको स्वतन्त्र ही वस्तुमें माना जाय तो अवश्य ही उन दोनोंमें विरोध आवेगा । " नैकस्मिन्नसंभवात् " अर्थात् एक पदार्थ में दो विरोधी धर्म नहीं रह सक्ते हैं, यह दोष वस्तुमें तभी आता है जब कि उसमें दोनों धर्मो को स्वतन्त्र माना जाता है, परस्पर सापेक्षता में दोनों ही धर्म अविरुद्ध हैं । इस लिये जो विधि निषेधको स्वतन्त्र कहते हैं वे उपर्युक्त दोष से अनेको अलग नहीं कर सक्ते हैं और व्यापरिज्ञान से परिचित हैं । विधि, निषेध सर्वशा नामभेद भी नहीं है-नव्या संज्ञा भेदोप्यव धितो भवति । तत्र विधौ विधिमात्राच्छेषविशेषादिलक्षणाभावात् ॥ ३०९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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