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________________ अध्याय। सुबोधनी टीका। अर्थ-ऊपर कहे हुए कथनका खुलासा अर्थ यह है कि विधि ही युक्तिके पशसे स्वयं निषेधरूप होजाती है। और जो निषेध है, वह भी युक्तिके वशसे स्वयं विधिरूप होजाता है। भावार्थ-जिस समय पदार्थ सामान्य रीतिसे विवक्षित किया जाता है, उस समय वह समग्र पदार्थ सामान्यरूप ही प्रतीत होता है, ऐसा नहीं है कि उस समय पदार्थका कोई अंश विशेपरूप मी प्रतीत होता हो। इसी प्रकार विशेष विवक्षाके समय समय पदार्थ विशेषरूप ही प्रतीत होता है। जो दर्शनकार सामान्य और विशेषको पदार्थके जुदे जुदे अंश मानते हैं उनका इस कथनसे खण्डन होजाता है। क्योंकि पदार्थ एक समयमें दो रूपसे विवक्षित नहीं होसक्ता, और जिस समय जिस रूपसे विवक्षित किया जाता है, वह उस समय उसी रूपसे प्रतीत होता है। स्याद्वादका जितना भी स्वरूप है सब विवक्षाधीन है। इसीलिये जो नयहष्टिको नहीं समझते हैं, वे स्याद्वाद तक नहीं पहुंच पाते । • जैन-स्याद्वादीका स्वरूपइति विन्दनिह तत्त्वं जैनः स्यात्कोऽपि तत्ववेदीति । अर्थात्स्यात्स्यावादी तदपरथा नाम सिंहमाणवकः ॥ ३०८ ॥ अर्थ-ऊपर कही हुई रीतिके अनुसार जो कोई तत्त्वका ज्ञाता तत्त्वको जानता है, वही जैन है, और वही वास्तविक स्याद्वादी है। यदि ऊपर कही हुई रीतिसे तत्त्वका स्वरूप नहीं जानता है, तो वह स्याद्वादी नहीं है किन्तु उसका नाम सिंहमाणवक है। किसी बाल. कको यदि सिंह कह दिया जाय तो उसे सिंह माणवक कहते हैं । बालक वास्तव में सिंह नहीं है। शङ्काकारननु सदिति स्थायि यथा सदिति तथा सर्वकालसमयेषु । तत्र विवक्षितसमये तत्स्यादथवा न तदिदमिति चेत् ॥३०॥ अर्थ-सत् ध्रुवरूपसे रहता हैं, इसलिये वह सम्पूर्ण कालके सभी समयोमें रहता है, फिर आप (जैन) यह क्यों कहते है कि वह सत् विवक्षित समयमें ही है, अविवक्षित समयमें बह नहीं है। सत्यं तत्रासरमिति सन्मात्रापेक्षया तदेवेदम् । न तदेवेदं नियमात् सवस्थापेक्षया पुनः सदिति ॥ ३१० ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि ठीक है, तुम्हारी शंकाका उत्तर यह है कि सत्ता मात्रकी अपेक्षासे तो सत् वही है, और सत्की अवस्थाओंकी अपेक्षासे सत् वह नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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