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पंचाध्यायी ।
[ प्रथम
है और उसी अवस्था में वह प्रतिषेध्य भी है । जो सतत अन्वय रूपसे रहने वाली हो उसे विधि कहते हैं और जो व्यतिरेक रूपसे रहे उसे प्रतिषेध्य कहते हैं । वस्तु सामान्य अवस्था में ही सतत अन्वय रूपसे रह सक्ती है, परन्तु भेद विवक्षामें वह व्यतिरेकरूप धारण करती है । इसी लिये सत् सामान्यको विधि रूप और सत् विशेषको प्रतिव रूप कहा गया है । वस्तुकी विशेष अवस्थामें ही प्रतिषेध कल्पना की जाती है ।
सारांश
तस्मादिदमनवद्यं सर्व सामान्यतो यदाप्यस्ति । शेषविशेषविवक्षाभावादिह तदैव तन्नास्ति ॥ २८३ ॥
अर्थ — इसलिये यह बात निर्दोष रीति से सिद्ध हो चुकी कि सम्पूर्ण पदार्थ जिस समय सामान्यतासे विवक्षित किये जाते हैं उस समय वे सामान्यतासे तो हैं, परन्तु शेष - विशेष विवक्षाका अभाव होनेसे वे नहीं भी हैं ।
अथवा
यदि वा सर्वमिदं यद्विवक्षितत्वाद्विशेषतोऽस्ति यदा । अविवक्षितसामान्यात्तदैव तन्नास्ति नययोगात् ॥ २८४ ॥
अर्थ -- अथवा सम्पूर्ण पदार्थ जिस समय विशेषतासे विवक्षित किये जाते हैं, उस समय उसकी अपेक्षासे तो हैं, परन्तु उस समय सामान्य विवक्षाका उनमें अभाव होनेसे सामान्य दृष्टिसे वे नहीं भी हैं ।
स्वभाव और परभावका कथन --
तत्र विवक्ष्यो भावः केवलमस्ति स्वभावमात्रतया । अविवक्षितपरभावाभावतया नास्ति सममेव ॥ २८५ ॥
अर्थ — वस्तु सामान्य और विशेष भावोंमें जो भाव विवक्षित होता है, वही केवल
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वस्तुका स्व-भाव समझा जाता है, और उसी स्वभावकी अपेक्षासे वस्तुमें अस्तित्व आता है। परन्तु जो भाव अविवक्षित होता है, वही पर भाव कहलाता है । जिस समय स्वभावकी विवक्षा की जाती है, उस समय परभावकी विवक्षा न होनेसे उसका वस्तुमें अभाव समझा जाता है । इसलिये परभाव की अपेक्षासे वस्तुमें नास्तित्व आता है । अस्तित्व और नास्तित्व दोनों एक कालमें ही वस्तुमें घटित होते हैं ।
सर्वत्र होनेवाला नियम---
सर्वत्र क्रम एष द्रव्ये क्षेत्रे तथाऽथ काले च । अनुलोमप्रतिलोमैरस्तीति विवक्षितो मुख्यः ॥ २८६ ॥
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