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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ ८५ अर्थ — सर्वत्र यही ( ऊपर कहा हुआ ) क्रम लगा लेना चाहिये अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, चारों ही जगह अनुकूलता और प्रतिकूलता के अनुसार विवक्षित भाव है वही मुख्य समझा जाता है। यहां पर "च" से भावका ग्रहण किया गया है । दृष्टान्त संदृष्टिः पटभावः पटसारो वा परस्य निष्पत्तिः । अस्त्यात्मना च तदितरघटादिभावाऽविवक्षया नास्ति ॥२८७॥ अर्थ- - पटका भाव, पटका सार, पटके स्वरूपकी प्राप्ति, ये तीनों ही बातें एक अर्थवाली हैं । पटका भाव अपने स्वरूपकी अपेक्षासे है परन्तु उसके इतर घट आदि भावोंकी अविवक्षा होनेसे वह नहीं है। क्योंकि विवक्षित भावको छोड़कर बाकी सभी भाव अविवक्षित हैं । बाकी पांच भंगीके लानेका सङ्केत -- अपि चैवं प्रक्रियया नेतव्याः पञ्चशेषभङ्गाश्र । वर्णवदुक्तद्वयमिह पटवच्छेषास्तु तद्योगात् ॥ २८८ ॥ अर्थ — इसी प्रक्रिया के अनुसार बाकीके पांच भङ्ग भी वस्तुमें घटित कर लेना चाहिये । 'स्यात् अस्ति' और 'स्यात् नास्ति ' ये दो भंग वर्णकी तरह कह दिये गये हैं । बाकीके भंग पटकी तरह उन्हीं दो भंगों के योगसे घटित करना चाहिये । 6 भावार्थ - जिस प्रकार प्रकार और टकार इन दो अक्षरोंके योगसे पट शब्द बन जाता है, इसी प्रकार और भी अक्षरोंके योगसे वाक्य तथा पद्य बन जाते हैं । उसी प्रकार ' स्यात् अस्ति' और स्यान्नाति इन दो भंङ्गों के योगसे बाकीके पांच भंग भी बन जाते हैं। वस्तुमें, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभावकी अपेक्षासे अस्तित्व और परद्रव्य, परक्षेत्र परकाल और परभावकी अपेक्षासे नास्तित्व अथवा विवक्षित भावकी अपेक्षासे अस्तित्व और अविवक्षित भावकी अपेक्षा से नास्तित्व, ऐसे दो भंग तो ऊपर स्पष्टता से कहे ही गये हैं 1 वे दोनों तो स्वरूप और पररूपकी अपेक्षासे स्वतन्त्र कहे गये हैं। यदि इन्ही दोनोंको स्वरूप और पररूपकी अपेक्षासे एकवार ही क्रमसे कहा जाय तो तीसरा भंग स्यात् अस्ति नास्ति ' होजाता है । परन्तु यदि इन्हीं दोनोंको स्वरूप, पररूप की विवक्षा रखते हुए क्रमको छोड़कर एक साथ ही कहा जाय तो ' स्यात् अस्ति नास्ति ' का मिला हुआ चौथा < अवक्तव्य ' भंग होजाता है। तीसरे भंग में तो एकवार कहते हुए भी क्रम रक्खा गया था । इसलिये वचन द्वारा क्रमसे ' स्यात् अस्ति नास्ति ' कहा जाता है परन्तु यदि एकबार कहते हुए क्रम न रखकर दोनोंका एक साथ ही कथन किया जाय तो वह कथन वचनमें नहीं आसता है, क्योंकि वचन द्वारा एकवार एक ही बात कही जासक्ती है, दो नहीं, इसलिये दोका मिला हुआ चौथा ' अवक्तव्य ' भंग कहलाता है । और यदि स्वरूप, पररूप दोनों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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