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अध्याय।
सुबोधिनी टीका।
८३
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दृष्टान्तसंदृष्टिः पटपरिणतिमात्रं कालायतस्वकालतया ।
अस्ति च तावन्मात्रान्नास्ति पटस्तन्तुशुक्लरूपतया ॥ २७८ ॥
अर्थ---दृष्टान्तके लिये पट है । सामान्य परिणमनको धारण करनेवाला पट, सामान्यस्वकालकी अपेक्षासे तो है, परन्तु वही पट तन्तु और शुक्लरूप विशेष परिणमन ( परकाल ) की अपेक्षासे नहीं है।
भावकी अपेक्षासे अस्ति नास्ति कथनभावः परिणामः किल स चैव तत्त्वस्वरूपनिष्पत्तिः।
अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्वसारः स्यात् ।। २७९ ॥
अर्थ-भाव नाम परिणामका है और वही तत्त्वके स्वरूपकी प्राप्ति है, अथवा शक्तियोंके समूहका नाम भी भाव है, अथवा वस्तुके सारका नाम ही भाव है।
स विभक्तो विविधः स्यात्सामान्यात्मा विशेषरूपश्च ।
तत्र विवक्ष्यो मुख्यः स्यात्स्वभावोऽथ गुणोहि परभावः ॥२८०॥
अर्थ-वह भाव भी सामान्यात्मक और विशेषात्मक ऐसे दो भेदवाला है । उन दोनोंमें जो भाव विवक्षित होता है वह मुख्य होजाता है और जो अविवक्षित भाव है वह गौण होजाता है
भावका सामान्य और विशेष रूप-- सामान्यं विधिरेव हि शुद्धः प्रतिषेधकश्च निरपेक्षः। प्रतिषेधो हि विशेषः प्रतिषेध्यः सांशकश्च सापक्षः ॥ २८१ ॥
अर्थ- सामान्य विधिरूप ही है। वह शुद्ध है, प्रतिषेधक है और निरपेक्ष है। विशेष प्रतिषेध रूप है, प्रतिषेध्य है अंश सहित है और सापेक्ष है।
इसीका स्पष्ट अर्थ___अयमों वस्तुतया सत्सामान्यं निरंशकं यावत् ।
भक्तं तदिह विकल्पैर्द्रव्याद्यैरुच्यते विशेषश्च ॥ २८२॥ . अर्थ--ऊपरके श्लोकका खुलासा अर्थ यह है कि सत् ( पदार्थ ) जब तक अपनी वस्तुतामें सामान्यरीतिसे स्थिर है, और जब तक उसमें भेद कल्पना नहीं की जाती है तब तक तो वह सत् शुद्ध अखण्ड है, और जब वह द्रव्य, गुण, पर्याय आदि भेदोंसे विभाजित किया जाता है, तव वही सत् विशेष-खण्डरूप कहलाता है।
भावार्थ-वस्तुमें जब तक भेद बुद्धि नहीं होती है तब तक वह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे शुद्ध है, और उसी अवस्थामें वह निरपेक्ष है । परन्तु जब उसमें अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे भेद कल्पना की जाती है, तब वह वस्तु परस्पर सापेक्ष हो जाती
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