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________________ पश्चाध्यायी। [प्रथम - wwwwwwwwwwwwwwwwww कालका सामान्य और विशेष रूपसामान्य विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च । उभयोरन्यतरस्थावमग्नोन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति ॥ २७५ ॥ अर्थ-सामान्य विधिरूप है, विशेष प्रतिषेधरूप है। उन दोनोंमेंसे किसी एकके विवक्षित और अविवक्षित होनेसे अस्तित्व और नास्तित्व आता है। विधि और प्रतिषेधका स्वरूपतत्र निरंशो विधिरिति स यथा स्वयं सदेवेति । तदिह विभज्य विभागैः प्रतिषेधश्चांशकल्पनं तस्य ॥ २७६ ॥ अर्थ-अंश कल्पना रहित-निरंश परिणमनको विधि कहते हैं। जैसे-स्वयं सत्का. परिणमन । सत् सामान्यमें अंश कल्पना नहीं है किन्तु उसका सामान्य परिणमन है । और उसी सत्की भिन्न २ विभाजित-अंश-कल्पनाको प्रतिषेध कहते हैं। भावार्थ-सामान्य परिणमनकी अपेक्षासे वस्तुमें किसी प्रकारका भेद नहीं होता है परन्तु विशेष २ परिणमनकी अपेक्षासे वही एक निरंशरूप वस्तु अनेक भेदवाली हो जाती है। और वस्तुमें होनेवाले अंशरूप भेद ही प्रतिषेध रूप हैं। उदाहरणतदुदाहरणं सम्प्रति परिणमनं सत्तयावधार्येत । अस्ति विवक्षितत्त्वादिह नास्त्यंशस्याऽविवक्षया तदिह ॥२७७॥ अर्थ-प्रकृतमें उदाहरण इस प्रकार है कि जिस समय वस्तुमें भेद विवक्षा रहित सत्ता सामान्यके परिणमनकी विवक्षा की जाती है, उस समय वह सामान्य रूप-स्व-कालकी अपेक्षासे तो है, परन्तु अंशोंकी विवक्षा न होनेसे विशेषरूप-परकालकी अपेक्षासे वह नहीं है । एकैककृत्या प्रत्येकमणवस्तस्य नि:क्रियाः । लोकाकाशप्रदेशेषु रत्नराशिरिवस्थिताः ॥ २ ॥ व्यावहारिककालस्य परिणामस्तथा क्रिया। परत्वं चाऽपरत्वञ्च लिङ्गान्याहुमहर्षयः ॥ ३ ॥ तत्त्वार्थ सार । अर्थात--अपनी निज पर्यायों द्वारा परिणमन करनेवाले सम्पूर्ण द्रव्योम काल उदासीन कारण है इसीलिये उसे द्रव्योंके परिवर्तनमें हेतु रूप कर्ता कहा गया है । काल द्रव्यके दो भेद हैं एक निश्चय, दूसरा व्यवहार । निश्चय यथार्थ काल है, वह असंख्यात है और एक एक काल द्रव्य प्रत्येक लोकके प्रदेशमें रत्नोंकी राशिकी तरह निष्क्रय रूपसे ठहरा हुआ है। व्यवहार काल काल्पनिक है और परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि उसके चिन्ह हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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