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________________ ७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः राणि श्रयते इति । अत्रोच्यते।-मत्यवधिमनःपर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकत्वात् । चेतनाज्ञस्वाभाव्याच्च सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते, तस्मादपि विपर्ययान्न श्रयत इति । अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत इति । आह च ।-- __ अर्थ-प्रश्न-पहले ज्ञानके पाँच भेद बता चुके हैं, और तीन विपरीत ज्ञानोंका स्वरूप भी लिख चुके हैं । दोनों मिलकर ज्ञानके आठ भेद हैं । इनमेंसे किन किन ज्ञानोंकी नैगमादि नयों से कौन कौनसा नय अपेक्षा लेकर प्रवृत्त हुआ करता है ? अर्थात् कौन कौनसा नय किस किस ज्ञानका आश्रय लिया करता है ? उत्तर-नैगम आदिक तीन नय-नैगम संग्रह और व्यवहार तो कुल आठों प्रकारके ज्ञानका आश्रय लिया करते हैं, और ऋजुसूत्र नय आठमेंसे मतिज्ञान और मत्यज्ञान इन दोके सिवाय बाकी छह प्रकारके ज्ञानका आश्रय लिया करता है । प्रश्न--यह नय मतिज्ञान और मत्यज्ञानका आश्रय क्यों नहीं लेता ? उत्तर--ये दोनों ही ज्ञान श्रुतज्ञान और श्रुताज्ञानका उपकार करने वाले हैं, अतएव उनका आश्रय नहीं लिया जाता । चक्षुरादिक इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह यदि अवग्रहमात्र ही हो, तो उससे वस्तुका निश्चय नहीं हो सकता । क्योंकि जब श्रुतज्ञानके द्वारा उस पदार्थका पर्यालोचन किया जाता है, तभी उसका यथावत् निश्चय हुआ करता है । अतएव मतिज्ञानसे फिर क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ? इसी लिये ऋजुसूत्रनय मतिज्ञान और मत्यज्ञानका आश्रय नहीं लिया करता । शब्दनय श्रुतज्ञान और केवलज्ञान इन दो ज्ञानोंका ही आश्रय लेकर प्रवृत्त हुआ करता है। प्रश्न-बाकी छह ज्ञानोंका आश्रय यह नय क्यों नहीं लेता ? उत्तरमतिज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान श्रुतज्ञानका ही उपकार करनेवाले हैं । क्योंकि ये तीनों ही ज्ञान स्वयं जाने हुए पदार्थके स्वरूपका दूसरेको बोध नहीं करा सकते । ये ज्ञान स्वयं मूक हैं, अपने आलोचित विषयके स्वरूपका अनुभव दूसरेको स्वयं करानेमें असमर्थ हैं, श्रुतइनके द्वारा ही उसका बोध करा सकते हैं, और वैसा ही कराया भी करते हैं । यद्यपि केवल ज्ञान भी मूक ही है, परन्तु वह समस्त पदार्थोंको ग्रहण करनेवाला और इसीलिये सबसे प्रधान है । अतएव शब्दनय उसका अवलम्बन लेता है । इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि चेतना-जीदत्व-अर्थात् सामान्य परिच्छेदकत्व और ज्ञ अर्थात् विशेषपरिच्छेदकता इन दोनोंका तथाभूत परिणमन सभी जीवोंमें पाया जाता है। इस नयकी अपेक्षासे पृथिवीकायिक आदि कोई भी जीव न मिथ्यादृष्टि है और न अज्ञ ही है। क्योंकि सभी जीव अपने अपने विषयका परिच्छेदन किया करते हैं-स्पर्शको स्पर्श और रसको रसरूपसे ही ग्रहण किया करते हैं, उनके इस परिच्छेदनमें अयथार्थता नहीं रहा करती। इसी प्रकार कोई भी जीव ऐसा नहीं है,जिसमें कि ज्ञानका अभाव पाया जाय । ज्ञानजीवका लक्षण है, वह सबमें रहता ही है, कमसे कम अक्षरके अनंतवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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