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________________ सूत्र ३५ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । माग प्रमाण तो रहता ही है । इस अपेक्षा से सभी जीव सम्यग्दृष्टि हैं, और ज्ञानी हैं। अतएव इस दृष्टिसे कोई विपरीत ज्ञान ही नहीं ठहरता है। और उसके विना शब्दनय अवलम्बन किसका लेगा । इसलिये भी विपरीत ज्ञानका शब्दनय आश्रय नहीं लेता । और इसी लिये प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और आप्तवचन-आगमको भी प्रमाण समझ लेना चाहिये। . अब इस अध्यायके अंतमें पाँच कारिकाओंके द्वारा इस अध्यायमें जिस जिस विषयका वर्णन किया गया है, उसका उपसंहार करते हैं। भाष्यम्--विज्ञायैकार्थपदान्यर्थपदानि च विधानमिष्टं च । विन्यस्य परिक्षेपात्, नयैः परीक्ष्याणि तत्त्वानि ॥१॥ ज्ञानं सविपर्यासं त्रयः श्रयन्त्यादितो नयाः सर्वम् । सम्यग्दृष्टानं मिथ्यादृष्टर्विपर्यासः ॥२॥ ऋजुसूत्रः षट् श्रयते मतेः श्रुतोपग्रहादनन्यत्वात् । श्रुतकेवले तु शब्दः श्रयते नान्यच्छ्रताङ्गत्वात् ॥ ३ ॥ मिथ्यादृष्टयज्ञाने न श्रयते नास्य कश्चिदशोऽस्ति। ज्ञस्वाभाव्याज्जीवो मिथ्यावृष्टिर्न चाप्यस्ति ॥४॥ इति नयवादाश्चित्राः क्वचिद् विरुद्धा इवाथ च विशुद्धाः। लौकिकविषयातीताः तत्त्वज्ञानार्थमधिगम्याः॥५॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥ अर्थ-जीव प्राणी जन्तु इत्यादि एकार्थ पदोंको और निरुक्तिसिद्ध अर्थपदोंको जानकर तथा नाम स्थापना आदिके द्वारा तत्त्वोंके भेदोंको जानकर एवं निर्देश स्वामित्व आदि तथा सत् संख्या आदि अधिगमोपायोंको भी समझकर नामादि निक्षेपोंके द्वारा तत्त्वोंका व्यवहार करना चाहिये और उपर्युक्त नयोंके द्वारा उनकी परीक्षा करनी चाहिये ॥१॥ १-जैसा कि कहा भी है कि “ सव्वजीवाणं पि य णं अक्खस्स अणंतो भागो निच्चुग्घाडितओ ।" ( नन्दीसूत्र ४२) अर्थात् सभी जीवोंके अक्षरके अनंतवें भाग प्रमाण ज्ञान तो कमसे कम नित्य उद्घाटित रहता है। यह ज्ञान निगोदियाके ही पाया जाता है। और इसको पर्यायज्ञान तथा लब्ध्यक्षर भी कहते हैं। क्योंकि लब्धि नाम ज्ञानावरणकर्मके क्षयोयशमसे प्राप्त विशुद्धिका है। और अक्षर नाम अविनश्वरका है। ज्ञानावरणकर्मका इतना क्षयोपशम तो रहता ही है । अतएव इसको लब्ध्यक्षर कहते हैं। ६५५३६ को पगट्ठी और इसके वर्गको वादाल तथा वादालके वर्गको एकही कहते हैं । केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदोंमें एक कम एकट्टीका भाग देनेसे जो लब्ध आवे, उतने अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहका नाम अक्षर है । इस अक्षर प्रमाणमें अनन्तका भाग देनेसे जितने अविभागप्रतिच्छेद लब्ध आ, उतने ही अविभागप्रतिच्छेद पर्याय ज्ञानमें पाये जाते हैं । वे नित्योद्घाटी हैं । २-यह कथन शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे है । अतएव सर्वथा ऐसा ही नहीं समझन चाहिये। कर्मोपाधिरहित शुद्ध जीवका स्वरूप ऐसा है, यह अभिप्राय समझना चाहिये । किंतु लोकव्यवहार एक नयके द्वारा नहीं किंतु सम्पूर्ण नयोंके द्वारा साध्य है। ३-" न चाप्यज्ञः" इति क्वचित् पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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