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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
षष्ठांश अष्टमांश आदि देशरूप अथवा अविभागी प्रदेशरूप । अजीव शब्दसे पुद्गलादिक अजीव द्रव्यका ही ग्रहण होता है । क्योंकि यहाँपर अकार सर्वप्रतिषेधबाची है । नोअजीव ऐसा कहनेसे दो अर्थोंका बोध होता है, जब नो और अ इन दोनोंका ही अर्थ सर्वप्रतिषेध है, तब तो नोअजीवका अर्थ जीवद्रव्य ही समझना चाहिये । क्योंकि दो नकार-निषेधका निषेध प्रकृतस्वरूपकाही बोधन कराया करता है। किंतु जब नोका अर्थ ईषत् निषेध और अ का अर्थ सर्वप्रतिषेध है, तब नोअजीवका अर्थ जीवद्रव्यका देश अथवा प्रदेश ऐसा करना चाहिये । ।
इस प्रकार जीव नोनीव आदि चार विकल्पोंमें प्रवृत्ति करनेवाले नैगम आदि नयोंसे किस अर्थका बोध होता है, सो ही यहाँपर बताया है । परन्तु एवंभूतनयमें यह बात नहीं है। उसमें क्या विशेषता है सो बताते हैं
एवंभूतनयसे जीव शब्दका उच्चारण करनेपर चतुतिरूप संसारमें रहनेवाले जीवद्रव्यका ही बोध होता है, सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेवाले जीवका बोध नहीं होता। क्योंकि यह नय जीवके विषयमें औदायिक भावको ही ग्रहण करनेवाला है। तथा जीव शब्दका अर्थ ऐसा होता है कि “ जीवतीति जीवः।" अर्थात् जो श्वासोच्छास लेता है-प्राणोंको धारण करनेवाला है, उसको जीव कहते हैं। सो सिद्ध पर्यायमें प्राणोंका धारण नहीं है। अतएव एवम्भूत नयसे संसारी जीवका ही ग्रहण करना चाहिये । नोजीव शब्दसे या तो अजीव द्रव्यका ग्रहण होता, अथवा सिद्ध जीवका । क्योंकि जीव शब्दका अर्थ जीवन-प्राणोंका धारण करना है, सो दोनोंमें से किसीमें भी नहीं पाया जाता। अजीव कहनेसे केवल पुद्गलादिक अचेतन द्रव्यका ही ग्रहण होता है, और नोअजीव कहनेसे संसारी जीवका ही बोध होता है । यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार नोजीव और नोअजीव शब्दोंका अर्थ जीवके देश अथवा प्रदेशका भी हो सकता है, परन्तु यह अर्थ यहाँपर नहीं लेना चाहिये; क्योंकि एवम्भूतनय देश प्रदेशको ग्रहण नहीं करता । वह स्थूल अथवा सूक्ष्म अवयवरूप पदार्थको विषय न करके परिपर्ण अर्थको ही ग्रहण किया करता है । इस प्रकार ... १-नप प्रतिषेधके भी दो अर्थ होते हैं--एक प्रसज्य दूसरा पर्युदास। प्रसज्य पक्षमें नका अर्थ सर्व प्रतिषेध और पर्युदास पक्षमें तद्भिन्न तत्सदृश अर्थ होता है । यथा--" पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ।" इस नियमके अनुसार अजीव शब्दके भी दो अर्थ हो सकते हैं । परन्तु नो जीव शब्दके दो अर्थ किये गये है, अतएव अजीव शब्दका एक सर्वप्रतिषेवरूपही अर्थ करना उचित है, ऐसा इस लेखसे आचार्यका अभिप्राय मालूम होता है । २-" द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतं गमयतः " ऐसा नियम है । ३-जिनका संयोग रहनेपर जीवमें “ यह जीता है" ऐसा व्यवहार हो और जिनका वियोग होनेपर " यह मर गया " ऐसा व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं । ऐसे प्राण दश है-पांच इन्दिय तीन बल-मन वचन काय आयु और श्वासोच्छ्रास यथा-" जं संजोगे जीवदि मरदि वियोंगे वि तेवि दह पाणा।" तथा-पंचवि इंदिय पाणा मणवचिकाएसु तिणि बलपाणा।आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होतिदसपाणा ॥" सो ये प्राण संसारी जीवोंकी अपेक्षासे कहे गये हैं। सिद्धों में ये नहीं रहते; क्योंकि प्राण दो प्रकारके होते हैं, द्रव्यरूप और भावरूप । द्रव्यप्राणोंके ये दश भेद हैं। भावप्रमाण चेतनारूप है। संसारी जीवमें दोनों ही तरहके प्राण पाये जाते हैं, और सिद्धोंमें केवल भावप्राण-चेतना ही पाया जाता है।
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