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________________ सूत्र ३५ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ६९ अथवा " अजीव " यद्वा " नोअजीव " इस 1 अर्थ - शंका - " जीव " (( या नोजीव " तरहसे केवल शुद्धपदका ही यदि उच्चारण किया जाय, तो नैगमादिक नयोंमेंसे किस नयके द्वारा इन पदों के कौनसे अर्थका बोधन कराया जाता है ? उत्तर- -" जीव " ऐसा उच्चारण करनेपर देशग्राही नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र साम्प्रत और समभिरूढ इन नयोंके द्वारा पाँच गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें रहनेवाले जीव पदार्थका बोधन होता है । क्योंकि ये नय जीव. शब्दसे औपशमिक आदि परिणामोंसे जो युक्त है, उसको जीव कहते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करनेवाले हैं । अर्थात् इन नयोंके द्वारा औपशमिकादि पाँच प्रकारके भाव मेंसे यथासंभव भावको जो धारण करनेवाला है, वह जीव है ऐसे अर्थका बोधन कराया जाता है । " नोजीव " ऐसा कहने से जीवके देश अथवा प्रदेश इन दोनोंका प्रत्यय होता है । " अजीव " ऐसा कहने से केवल अजीव द्रव्यका ही बोध होता है । और " नोअजीव " ऐसा कहने से या तो जीव द्रव्यका ही बोध होता है अथवा उसीके - जीवके ही देश और प्रदेश दोनोंका बोध होता है । भावार्थ - ऊपर नैगम आदिक नयका जो स्वरूप बताया है, वह केवल घटादिक अजीव पदार्थोंके उद्देशको लेकर ही दिखाया गया है, न कि जीव पदार्थका भी उदाहरण देकर। अथवा उन उदाहरणोंमें केवल विधिरूपका ही उल्लेख पाया जाता है, न कि प्रतिषेधरूपका । अतएव यहाँपर जीवन जीव अजीव नोअजीव इन चार विकल्पोंके द्वारा उन नयोंका अभिप्राय स्पष्ट किया है । इनमें जीव शब्दका उच्चारण करनेपर जीव पदार्थ का ही बोध होता है । औपशमिकादि भावोंमेंसे किसी भी, एक को या दो को अथवा सभीको जो धारण करनेवाला है, उसको जीव कहते हैं । सिद्धजीव क्षायिक और पारणामिक भावोंको ही धारण करनेवाले हैं। परन्तु अन्य जीवोंमें औपशमिक क्षायोपशमिक और औदयिकभाव भी पाये जाते हैं । वह जीव नरक तिर्यंच मनुष्य और देव इस तरह चार गतियों में और पाँचवीं सिद्ध गतिमें भी रहनेवाला है । समग्रग्राही नैगम और एवंभूतको छोड़कर बाकी उपर्युक्त सभी नयोंके द्वारा इन पाँचों ही स्थानों—अवस्थाओंमें रहनेवाले जीवपदार्थका बोध हुआ करता है । 1 नोजीव इस शब्द के द्वारा दो अर्थोंका बोध होता, एक तो जीवसे भिन्न पदार्थ दूसरा जीवका अंश । क्योंकि नो शब्द सर्व प्रतिषेधमें भी आता है, और ईषत् प्रतिषेधमें भी आता है । सो जब सर्व प्रतिषेध अर्थ विवक्षित हो, तब तो नोजीव शब्दका अर्थ जीवद्रव्यसे भिन्न कोई भी द्रव्यं ऐसा समझना चाहिये, और जब ईषत् प्रतिषेध अर्थ अभीष्ट हो, तब जीव द्रव्यका अंश ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये । अंश भी दो प्रकारसे समझने चाहिये, एक तो चतुर्थीश १ – क्योंकि जैनसिद्धान्त में तुच्छाभाव कोई पदार्थ नहीं माना है, और यह बात युक्तिसिद्ध भी है । क्योंकि सर्वथा अभावरूप वस्तु प्रतीतिविरुद्ध है, तथा स्वरूपकी बोधक और अर्थक्रिया की साधक नहीं हो सकती । अतएव अभावको वस्त्वन्तररूप ही मानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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