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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः प्रकाशित करनेकी रौतिकी अपेक्षा रखकर देश-विशेष और समग्र-सामान्यको विषय करनेवाले अध्यवसायको जिसका कि व्यवहार परस्पर विमुख सामान्य विशेषके द्वारा हुआ करता है, नैगम नय कहते हैं ॥ १॥ जो सामान्य ज्ञेयको विषय करनेवाला है, जो गोत्वादिक सामान्य विशेष और उसके खंडमुण्डादिक विशेषोंमें प्रवृत्त हुआ करता है, ऐसे ज्ञानको नयोंकी विधि-भेदस्वरूपके जाननेवालोंको संग्रहनयका निश्चित स्वरूप समझना चाहिये । क्योंकि सामान्यको छोड़कर विशेष और विशेषको छोड़कर सामान्य नहीं रह सकता, और सत्ताको छोडकर न सामान्य रह सकता है, न विशेष रह सकता है । अतएव यह नय दोनोंको ही विषय किया करता है ॥ २ ॥ समुदाय नाम संघात अथवा समूहका है । मनुष्य आदिक सामान्य विशेषरूप पदार्थको व्यक्ति कहते हैं । चौड़ा गोल लम्बा तिकोना षट्कोण आदि संस्थानको आकृति कहते हैं। सत्ता शब्दसे यहाँ महासामान्य अर्थ समझना चाहिये । संज्ञा आदिसे प्रयोजन नामादिक चार निक्षेपोंका है । इन समुदायादिक विषयोंके निश्चयकी अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होनेवाले अध्यवसायको व्यवहारनय कहते हैं । यह नय विस्तृत माना गया है। क्योंकि लोकमें “ पर्वत जल रहा है" इत्यादि व्यवहारमें आनेवाले उपचरित विषयोंमें भी यह प्रवत्त हआ करता है। तथा उपचरित और अनुपचरित दोनों ही प्रकारके पदार्थोंका यह आश्रय लेता है, इसलिये इसको विस्तीर्ण कहते हैं ॥ ३ ॥ जो वर्तमानकालीन पदार्थका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, उसको ऋजुमूत्रनय कहते हैं । यहाँ पर ऋजुसूत्रनयका स्वरूप संक्षेपसे इतना ही समझना चाहिये यर्थार्थ शब्दको विषय करनेवाले और विशेषित ज्ञानको शब्दनय कहते हैं ॥ ४ ॥ ___ भाष्यम्-अत्राह-अथ जीवो नोजीवः अजीवो नोऽजीव इत्याकारिते केन नयेन कोऽथः प्रतीयत इति । अत्रोच्यते।-जीव इत्याकारिते लैगमदेशसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रसाम्प्रतसमाभरूढः पञ्चस्वपि गतिष्वन्यतमो जीव इति प्रतीयते । कस्मात्, एते हि नया जीवं प्रत्यौपशमिकादियुक्तभावग्राहिणः । नाजीव इत्यजीवद्रव्यं जीवस्य वा देशप्रदेशौ । अजीव इति अजीवद्रव्यमेव । नोऽजीव इति जीव एव तस्य वा देशप्रदेशाविति ॥ एवम्भूतनयेन तु जीव इत्याकरते भवस्थो जीवः प्रतीयते। कस्मात्, एष हि नयो जीवं प्रत्यौदायिकभावग्राहक एव । जीवतीति जीवः प्राणिति प्राणान्धारयतीत्यर्थः। तच्च जीवनं सिद्धे न विद्यते तस्माद्भवस्थ एव जीव इति । नोजीव इत्यजीवद्रव्यं सिद्धो वा । अजीव इत्यजीवद्रव्यमेव । नोऽजीव इति भवस्थ एव जीव इति । समग्रार्थग्राहित्वाचास्य नयस्य नानेन देशप्रदेशौ गृह्यते । एवं जीवौ जीवा इति द्वित्व बहुत्वाकारितेष्वपि । सर्व संग्रहणे तु जीवो नोजीवः अजीवो नोऽजीवो जीवौ नोजीवौ अजीवौ नोऽजीवी इत्येकद्वित्वाकारितेषु शून्यम् कस्मात, एष हि नयः संख्यानन्त्या. ज्जीवानां बहुत्वमेवेच्छति यथार्थग्राही। शेषास्तुनया जात्यपेक्षमेकस्मिन् बहुवचनत्वं बहुषु च बहुवचनं सर्वाकारितग्राहिण इति । एवं सर्वभावेषु नववादाधिगमः कार्यः। १-" यथार्थ शब्द " ऐसा कहनेसे मुख्यतया एवम्भूतनयको सूचित किया है, जैसा कि श्रीसिद्धसेनगणीकृत टीकामें भी कहा है कि “ अनेन तु एवम्भूत एव प्रकाशितो लक्ष्यते सर्व विशुद्धत्वात्तस्य । ” “ विशेषितपदम" ऐसा कहनेसे साम्प्रत और समभिरूढ इन दो भेदोंको ध्वनित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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