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________________ सूत्र ३१ । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । मतिज्ञान कुछ ही पर्यायोंको विषय कर सकता है, परन्तु श्रुतज्ञान असंख्यात पर्यायोंके ग्रहण और निरूपणमें समर्थ है। अवधिज्ञान श्रुतज्ञानकी भी अपेक्षा अधिक स्पष्टतासे इन्द्रिय और मनकी अपेक्षा भी न लेकर रूपी पदार्थको जान सकता है, और इसी तरह मनःपर्यायज्ञान अपने विषयको अवधिकी अपेक्षा भी अधिक विशुद्धताके साथ ग्रहण कर सकता है। और केवलज्ञानसे तो अपरिच्छिन्न कोई विषय ही नहीं है । इस प्रकार सभी ज्ञानोंका स्वरूप और विषयपरिच्छेदन भिन्न होनेसे उनमें किसी भी तरह की बाधा नहीं है, उसी तरह नयोंका भी स्वरूप तथा विषयपरिच्छेदन भिन्न भिन्न है, अतएव उनमें भी किसी भी तरहकी बाधा उपस्थित नहीं हो सकती। अथवा जिस प्रकार प्रत्यक्ष अनुमान और उपमान तथा आप्तवचन-आगेम इन प्रमाणोंके द्वारा अपने अपने विषयके नियमानुसार एक ही पदार्थका ग्रहण किया जाता है, उसमें कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार नयोंमें भी कोई विरोध नहीं है । अर्थात् जैसे वनमें लगी हुई अग्निको एक जीव जो निकटवर्ती है, अपनी आंखोंसे देखकर स्वयं अनभवरूप प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा उसी अग्निको जानता है, परन्तु दूसरा व्यक्ति उसी अग्निको धूम हेतुको देखकर जानता है, तथा तीसरा व्यक्ति उसी अग्निको ऐसा स्मरण करके कि सुवर्ण पुञ्जके समान पीत वर्ण प्रकाशमान और आमूलसे उष्ण स्पर्शवाली अग्नि हुआ करती है, तथा वैसा ही प्रत्यक्षमें देखकर उपमानके द्वारा जानता है, तथा चौथा व्यक्ति केवल किसीके यह कहनेसे ही कि इस वनमें अग्नि है, उसी अग्निको जान लेता है। यहाँपर इन चारों ज्ञानोंमें और उनके विषयों में किसी भी प्रकारका विसंवाद नहीं है, उसी प्रकार नयोंके विषयमें भी समझना चाहिये । अतएव ऐसा कहाँ भी है किभाष्यम् नैगमशब्दार्थानामेकानेकार्थनयगमापेक्षः। देशसमग्रग्राही व्यवहारी नैगमो ज्ञेयः॥१॥ यत्संगृहीतवचनं सामान्ये देशतोऽथ च विशेषे। तत्संग्रहनयनियतं ज्ञानं विद्यान्नयविधिज्ञः॥२॥ समुदायव्यक्तयाकृतिसत्तासंज्ञादिनिश्चयापेक्षम् । लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृत विद्यात साम्प्रत विषयग्राहकमृजुसूत्रनयं समासतो विद्यावाविद्याद्यथार्थशब्दं विशेषितपदंतु शब्दनयम४ अर्थ-निगम नाम जनपदका है, उसमें जो बोले जाते हैं, उनको नैगम कहते हैं। ऐसे-नगमरूप शब्द और उनके वाच्य पदार्थोंके एक-विशेष और अनेक सामान्य अंशोंको १-" संखातीतेऽवि भवे।” ( आव०नि०) । २-विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु यहाँपर अनुभवरूप मतिज्ञानसे अभिप्राय है, हेतुको देखकर साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । उपमानसे मतलब यहाँपर सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का है । सत्य वक्ताके वचनोंसे जो ज्ञान होता है, उसको आगम कहते हैं । ३-इस शब्दका अभिप्राय टीकाकार श्रीसिद्धसेनगणीने यह बताया है, कि इस शब्दसे ग्रन्थकार अपनेको ही प्रकारान्तरसे सूचित करते हैं यथा-" आहचेत्यात्मानमेव पर्यायान्तरवर्तिनं निर्दिशति ।” ४-देशतो विशेषाच" इति पाठान्तरम् । ५-संज्ञादि निश्चयापेक्षमेवं क्वचित्पाठः । क्वचित्तु " संज्ञाविनिश्चयापेक्षम् ” इतिपाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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