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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
सकती है, अथवा जो त्रैकालिक है, वही वर्तमानक्षणवर्ती कैसे कहीं जा सकती है । यद्वा नामादिक तीनोंको छोड़कर केवल भावरूप या पर्याय शब्दोंका अवाच्य अथवा विशिष्ट क्रियासे युक्त वस्तु विशेष कैसे मानी जा सकती है। ये सभी प्रतीति विरुद्ध होनेसे निश्चयात्मक-तत्त्वज्ञानरूप कैसे कही जा सकती हैं ? उत्तर-अपेक्षा विशेषके द्वारा एक ही वस्तु अनेक धर्मात्मक होनेसे अनेक अध्यवसायोंका विषय हो सकती है, इसमें किसी भी प्रकारका विरोध नहीं है । जैसे कि सम्पूर्ण वस्तुमात्रको सत्सामान्यकी अपेक्षा एक कह सकते हैं, और उसीको जीव अजीवकी अपेक्षा दो भेद रूप कह सकते हैं, तथा द्रव्य गुण और पर्यायकी अपेक्षासे तीन प्रकारकी भी कह सकते हैं। समस्त पदार्थ चक्ष अचक्ष अवधि और केवल इन चार दर्शनोंके विषय हुआ करते हैं । कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, कि जो इन चार दर्शनोंमेंसे किसी न किसी दर्शनका विषय न हो। अतएव वस्तु मात्रको चार प्रकारका भी कह सकते हैं। इसी तरह पंच अस्तिकायोंकी अपेक्षा पाँच भेदरूप और छह द्रव्योंकी अपेक्षा छह भेदरूप भी कह सकते हैं। जिस प्रकार इस विभिन्न कथनमें कोई भी विप्रतिपत्ति-विवाद उपस्थित नहीं होते, और न अध्यवसाय स्थानोंकी भिन्नता ही विरुद्ध प्रतीत होती है, उसी प्रकार नयवादोंके विषयमें भी समझना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार वस्तुमात्रमें एकत्व द्वित्व त्रित्व आदि संख्याओंका समावेश या निरूपण विरुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये। क्योंकि ये धर्म परस्परमें विरुद्ध नहीं है । यदि जीवको अजीव कहा जाय या ज्ञानगुणको अज्ञान-जडरूप कहा जाय । अथवा अमूर्त आकाशादि द्रव्योंको मूर्त बताया जाय, तो वह कथन विरुद्ध कहा जा सकता है, और उसके ग्रहण करनेवाले अध्यवसायोंमें भी विप्रतिपत्तिका प्रसङ्ग आ सकता है । परन्तु नयोंमें यह बात नहीं है, क्योंकि वे जिन अनेक धर्मोको विषय करती हैं, वे परस्परमें विरुद्ध नहीं हैं।
इसके सिवाय एक बात और भी है, वह यह कि-जिस प्रकार मतिज्ञान आदि पाँच प्रारके ज्ञानोंके द्वारा धादिक अस्तिकायोंमेंसे किसी भी पदार्थका पृथक् पृथक् ग्रहण हुआ करता है, उसमें किसी भी प्रकारकी विप्रतिपत्तिका प्रसंग-विसंवाद उपस्थित नहीं होता। क्योंकि उन ज्ञानोंमें ज्ञानावरण कर्मके अभावसे विशेष विशेष प्रकारकी जो विशुद्धि-निर्मलता रहा करती है, उसके द्वारा उत्कृष्टताके साथ उन्हीं पदार्थोंका भिन्न भिन्न अंशको लेकर परिच्छेदन हुआ करता है, इसी प्रकार नयवादके विषयमें भी समझना चाहिये ।
भावाथे-जिस प्रकार एक ही विषयमें प्रवृत्ति करनेवाले मतिज्ञानादिमें किसी भी प्रकारका विरोध नहीं है, उसी प्रकार नयोंके विषयमें भी नहीं हो सकता, क्योंकि एक ही घटादिक अथवा मनुष्यादिक किसी भी पर्यायको मतिज्ञानी चक्षुरादिक इन्द्रियोंके द्वारा जेसा कुछ ग्रहण करता है, श्रुतज्ञानी उसी पदार्थको अधिक रूपसे जानता है । क्योंकि
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