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________________ सूत्र ३५ । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । मानकाल सम्बन्धी घटादि पदार्थों के अध्यवसाय के असंक्रम - विषयान्तर में प्रवृत्ति न करनेको समभिरूढ नय कहते हैं । जिस प्रकार तीन योगों में से किसी भी एक योगका आश्रय लेकर वितर्कप्रधान शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति हुआ करती है, उसी प्रकार इस नयके विषय में भी समझना चाहिये । यद्यपि पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका पहला शुक्लध्यान भी वितर्क प्रधान हुआ करता है, परन्तु उसका उदाहरण न देकर यहाँ दसरे शुक्लध्यानका ही उदाहरण दिया है, ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि पहले · भेदमें अर्थ व्यंजन योगकी संक्रान्ति रहा करती है, और दूसरे भेदमें वह नहीं रहती' । तथा यह नय भी अध्यवसायके असंक्रमरूप है । अतएव दूसरे शुक्लध्यानका ही उदाहरण युक्तियुक्त है । अनंतरोक्त नयोंके द्वारा गृहीत घटादिक पदार्थों के व्यंजन - वाचकशब्द और उसके अर्थ- वाच्य पदार्थकी परस्परमें अपेक्षा रखकर ग्रहण करनेवाले अध्यवसायको एवम्भूत नय कहते हैं । अर्थात इस शब्दका वाच्यार्थ यही है, और इस अर्थका प्रतिपादक यही शब्द है, इस तरहसे वाच्यवाचक सम्बन्धकी अपेक्षा रखकर योग्य क्रिया विशिष्ट ही वस्तुस्वरूप ग्रहण करने को एवम्भूत नय कहते हैं । भावार्थ - शंकाकारने नय के लक्षण में दो विकल्प उठाकर अपना मतलब सिद्ध करना चाहा था, परन्तु ग्रंथकारने तीसरे ही अभिप्राय से उसका लक्षण बताकर शंकाकारके पक्षका निराकरण कर दिया है । नयोंका अभिप्राय क्या है, सो ऊपर बता दिया है, कि वे न तो अन्य सिद्धान्तका निरूपण करनेवाले हैं और न सर्वथा स्वतन्त्र ही हैं । किंतु जिनप्रवचन के अनुसार और यथार्थ वस्तुस्वरूपके ग्रहण करनेवाले हैं । विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग भाष्यम् -- अत्राह - एवमिदानीमेकस्मिन्नर्थेऽध्यवसायनानात्वान्ननु इति । अत्रोच्यते । यथा सर्वमेकं सदविशेषात् सर्व द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात् सर्व चंतुवं चतुर्दर्शनविषयावरोधात् सर्व पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात् सर्व षत्वं षद्रव्यावरोधादिति । यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराण्येतानि तद्वन्नयवादा इति । किं चान्यत् । - यथा मतिज्ञानादिभिः पञ्चभिर्ज्ञानैर्धर्मादीनामस्तिकायानामन्यतमोऽर्थः पृथक् पृथगुपलभ्यते पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कर्षेण न च तां विप्रतिपत्तयः - नयवादाः। यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनैः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते स्वविषय नियमात् न च ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादा इति । आह च अर्थ — शंका- आपने जो नयोंका स्वरूप बताया है, उसमें विरुद्धता प्रतीत होती है । क्योंकि आपने एक ही पदार्थ में विभिन्न प्रकार के अनेक अध्यवसायकी प्रवृत्ति मानी है । परन्तु यह बात कैसे बन सकती है । एक ही वस्तु जो सामान्यरूप है, वही विशेषरूप कैसे हो १--वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः ॥ अ० ९ सूत्र ४६ । अविचारं द्वितीयम् ॥ अ० ९ सूत्र ४४ २. “ चतुष्टयं ” इति च पाठः । ३ - " पंचास्तिकायात्मकत्वात् " इति पाठान्तरम् । ४ - पट्कमिति च पाठः । ५ तानीत्यपि पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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