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________________ ६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः ये - नय स्वतन्त्र ही हैं । अर्थात् ये नय अन्य सिद्धान्तका भी निरूपण करते हैं, अथवा यद्वा तद्वादुरुक्त अनुक्त या युक्त अयुक्त कैसे भी पक्षको ग्रहण करके जैनप्रवचनको सिद्ध करनेके लिये चाहे जैसे भी बुद्धिभेदके द्वारा दौड़नेवाले प्रवृत्ति करनेवाले हैं ? उत्तर- इन दोनोंमेंसे एक भी बात नहीं है । न तो ये अन्य सिद्धान्त के प्ररूपक हैं और न चाहे जैसे बुद्धिभेद के द्वारा जैनप्रवचनको सिद्ध करनेके लिये सर्वथा स्वतन्त्ररूपसे प्रवृत्ति करनेवाले हैं । किन्तु ज्ञेयरूप पदार्थको विषय करनेवाले ये ज्ञान विशेष हैं । अर्थात् अनेक धर्मात्मक वस्तुको ही ग्रहण करनेवाले ज्ञान अनेक प्रकारके हैं, उन्हींको नय कहते हैं । अतएव ये नय जैनशास्त्रका ही निरूपण करनेवाले हैं | जैसे कि किसीने घट शब्दका उच्चारण किया । यहाँपर देखना चाहिये, कि लोक में घट शब्द से क्या चीज ली जाती है । जो घटनक्रिया - कुंभकार की चेष्टा के द्वारा निष्पन्न बना हुआ है, जिसके ऊपरके ओष्ठ कुण्डलाकार गोल हैं, और जिसकी ग्रीवा आयतवृत्त - लम्बगोल है, तथा जो नीचे के भागमें भी परिमण्डल - चारों तरफसे गोल है, एवं जो जल घी दूध आदि पदार्थोंको लाने तथा अपने भीतर भरे हुए उन पदार्थोंको धारण करनेके कार्यको करनेमें समर्थ है, और जो अग्निपाकसे उत्पन्न होनेवाले रक्तता आदि उत्तर गुणों की परिसमाप्ति होजाने से भी निष्पन्न हो चुका है, ऐसे द्रव्य विशेषको ही घट कहते हैं । इस तरह के किसी भी एक खास घटका अथवा उस जाति - जिन जिन में यह अर्थ घटित हो, उन सभी घटोंका सामान्यरूपसे जो परिज्ञान होता है, उसको नैगम नय कहते हैं । 1 1 घटादिक पदार्थ निक्षेप भेदसे चार प्रकार के होते हैं । - जैसे कि नामघट स्थापनाघट द्रव्यघट और भावघट । इनके भी वर्तमान भूत और भविष्यत् की अपेक्षा से तीन तीन भेद हैं । सो इनमें से किसी भी तरह के एक या अनेक - बहुतसे वटोंका सामान्यरूपसे बोध होता है, उसको संग्रहनय कहते हैं । क्योंकि यह नय विशेष अंशोंको ग्रहण न कर सामान्य अंशोंको ही ग्रहण किया करता है। तथा इन्हीं एक दो या बहुत्व संख्यायुक्त नामादिस्वरूप और जिनका लोक प्रसिद्ध एवं परीक्षक - पर्यालोचना करनेवाले जलादिक द्रव्योंको लाने आदिकमें उपयोग किया करते हैं और जो उपचारगम्य हैं -लोकक्रिया के आधारभूत हैं, ऐसे यथायोग्य स्थूल पदार्थोंका जो ज्ञान होता है, उसको व्यवहार नय कहते हैं । क्योंकि प्रायः करके यह नय सामान्यको ग्रहण न करके विशेषको ही ग्रहण किया करता है, और इसी प्रकार सूक्ष्मको गौण करके स्थूल विषयमें ही यह प्रायः प्रवृत्त हुआ करता है । वर्तमान क्षणमें ही विद्यमान उन्हीं घटादिक पदार्थोके जाननेको ऋजुसूत्र नय कहते हैं । ऋजुसूत्र नयके ही विषयभूत और केवल वर्तमानकालवर्ती तथा निक्षेपकी अपेक्षा नामादिकके भेदसे चार प्रकार के पदार्थोंमें से किसीको भी विषय करनेवाले और जिनका वाच्यवाचक सम्बन्ध पहलेसे ही ज्ञात है, अथवा जिनका संकेत ग्रहण हो चुका है, ऐसे शब्दरूपसे घटादिकके ग्रहण करनेको साम्प्रत शब्दनय कहते हैं । उन्हीं सद्रूप - विद्यमान वर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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