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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
जितने स्थान हैं, उनमें से जिस स्थानका अवधि उत्पन्न होकर परम शुभ परिणामोंका निमित्त पाकर उत्कृष्ट प्रमाणतक बढ़ता ही जाय उसको वर्धमानक समझना चाहिये । अनवस्थित अवधिज्ञान उसको समझना चाहिये जोकि एक रूपमें न रहकर अनेक रूप धारण कर सके । या तो कभी उत्पन्न प्रमाणसे घटता ही जाय, या कभी बढ़ता ही जाय, अथवा कभी घटे भी और बढ़े भी, यद्वा कभी छूट भी जाय और फिर कभी उत्पन्न हो जाय । जिस प्रकार किसी जलाशयकी लहरें वायुवेगका निमित्त पाकर अनेक प्रकारकी - छोटी मोटी या नष्टोत्पन्न हुआ करती हैं, उसी प्रकार इस अवधि के विषय में समझना चाहिये | शुभ या अशुभ अथवा उभयरूप जैसे भी परिणामोंका इसको निमित्त मिलता है, उसके अनुसार इसकी हानि वृद्धि आदि अनेक अवस्थाएं हुआ करती हैं । कभी उत्पन्न प्रमाणसे बढ़ती ही है, कभी घटती ही है कभी एक दिशा की तरफ घटती हैं और दूसरी दिशा की तरफ बढ़ती है, कभी नष्टोत्पन्न भी होती है । इत्यादि । अवस्थित अवविज्ञान उसको कहते हैं, जो कि जितने प्रमाण क्षेत्रके विषय में उत्पन्न हो, उससे वह तबतक नहीं छूटता, जबतक कि केवलज्ञानकी प्राप्ति न हो जाय, अथवा उसका वर्तमान मनुष्य जन्म छूटकर जबतक उसको भवान्तरकी प्राप्ति न हो जाय, यद्वा जात्यन्तरस्थायि न बन जाय । जैसे कि लिंग - स्त्रीलिंग पुल्लिंग या नपुसंकलिंग प्राप्त होकर जात्यन्तरताको धारण किया करते हैं, उसी प्रकार अवधिज्ञान भी जिस जातिका उत्पन्न होता है, उससे भिन्न जातिरूप परिणमन कर लिया करता है | अर्थात् जिसके अवस्थित जातिका अवधिज्ञान होता है, उसके वह तबतक नहीं छूटता, जबतक कि उसको केवलज्ञानादिकी प्राप्ति न हो जाय । क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक है, उसके साथ क्षायोपशमिकज्ञान नहीं रह सकता । यदि उसी जन्ममें केवलज्ञान न हो, तो जन्मान्तर में वह अवधिज्ञान उस जीवके साथ भी जाता है । जिस प्रकार इस जन्म में प्राप्त हुआ पुरुष लिंग आदि तीन प्रकारके लिंगोंमेंसे कोई -भी लिंग जैसे इस जन्ममें आमरण साथ रहा करता है, परन्तु कदाचित् जन्मान्तर में भी साथ जाता है । उसी प्रकार यह अवधिज्ञान केवलज्ञान होनेतक अथवा इस जन्म के पूर्ण होनेतक तदवस्थ रहा करता है - जितने प्रमाण में उत्पन्न हुआ है, उसी प्रमाणमें ज्योंका त्यों अवस्थित रहा करता है, परन्तु कदाचित् जन्मान्तरको साथ भी चला जाता है
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भावार्थ--अवधिज्ञानके ये छह भेद दो कारणों से हुआ करते हैं - अंतरंग और बाह्य । अंतरंग कारण क्षयोपशमकी विचित्रता है, और बाह्य कारण संयम स्थानादिकी तथा अन्य निमित्त कारणों की विभिन्नता है । इस षड्भेदात्मक अवधिको क्षयोपशमनिमित्तक कहते हैं क्योंकि इसमें भवप्रत्ययके समान भव प्रधान कारण नहीं है । जिस प्रकार देव या नारक भवधारण करनेवालेको उस भव धारण करनेसे ही अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम अवश्य प्राप्त हो
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