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________________ सूत्र २३ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । हैं। वे छह भेद कौनसे हैं सो बताते हैं,-अनानुगामी, आनुगामी, हीयमानक, वर्धमानक, अनवस्थित और अवस्थित । जिस स्थानपर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, उस स्थानपर तो वह काम कर सके और उस स्थानको छोड़कर स्थानान्तरमें चले जानेपर वह छूट जाय-काम न कर सके-अपने विषयको जाननेमें समर्थ या उपयुक्त न हो सके, उस अवधिज्ञानको अनानुगामिक कहते हैं । जैसे कि किसी किसी ज्योतिषी या निमित्तज्ञानी आदि मनष्योंके वचनके विषयमें देखा जाता है, कि यदि उससे कोई प्रश्न किया जाय, तो वह उसका उत्तर किसी नियत स्थानपर ही दे सकता है, न कि सर्वत्र । इसी तरह इस अवधिज्ञानके विषयमें भी समझना चाहिये । आनुगामिक अवधिज्ञान इससे उल्टा है। वह जिस जीवके जिस क्षेत्रमें उत्पन्न होता है, वह जीव यदि क्षेत्रान्तरको चला जाय, तो भी वह छटता नहीं। उत्पन्न होनेके स्थानमें और स्थानान्तरमें दोनों ही जगह वह अपने योग्य विषयको जाननेका काम कर सकता है। जैसे कि पूर्व दिशामें उदित होता हुआ सूर्य-प्रकाश पूर्व दिशाके पदार्थोंको भी प्रकाशित करता है, और अन्य दिशाके पदार्थोंको भी प्रकाशित करता है । अथवा जिस प्रकार अवा---पाकस्थानमें रक्तताको धारण करनेवाला घट अपने स्थानमें-पाकस्थानमें जिस प्रकार रक्ततासे युक्त रहा करता है, उसी प्रकार स्थानान्तरतडागादिमें भी रहा करता है। ऐसा नहीं है कि पाकस्थानमें तो वह रक्तताको धारण करे या प्रकाशित करे, परन्तु तडाग-सरोवरपर जानेपर वह वैसा न करे । इसी प्रकार जो अवधिज्ञान स्वस्थान और परस्थान दोनों ही जगह अपने विषयको ग्रहण कर सकता या अपने स्वरूपको प्रकाशित कर सकता है, उसको आनुगामिक कहते हैं । असंख्यात द्वीप समुद्र पृथिवी विमान और तिर्यक्-तिरछा अथवा ऊपर नीचेके जितने क्षेत्रका प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ है, क्रमसे उस प्रमाणसे घटते घटते जो अवधिज्ञान अङ्गुलके असंख्यात भाग प्रमाण तकके क्षेत्रको विषय करनेवाला रह जाय, उसको हीयमान कहते हैं । जिस प्रकार किसी अग्निका उपाक्न कारण यदि परिमित हो, तो उस उपादान संततिके न मिलनेसे उस अग्निकी शिखा भी क्रमसे कम कम होती जाती है, उसी प्रकार इस अवधिज्ञानके विषयमें समझना चाहिये । जो . अवधिज्ञान अङ्गलके असंख्यातवें भाग आदिक जितने विषयका प्रमाण लेकर उत्पन्न हो, उस प्रमाणसे बढ़ता ही चला जाय उसको वर्धमानक कहते हैं । जैसे कि नीचे और उपर अरणिके संघर्षणसे उत्पन्न हुई अग्निकी ज्वाला शुष्क पत्र आदि ईंधन राशिका निमित्त पाकर बढ़ती ही चली जाती है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान जितने प्रमाणको लेकर उत्पन्न हुआ है, उससे अन्तरङ्ग बाह्य निमित्त पाकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्त बढ़ता ही चला जाय, उसको वर्धमानक कहते हैं । अर्थात् जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट प्रमाणतक विषयकी अपेक्षासे अवधिज्ञानके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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