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________________ सूत्र २४ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसत्रम् | जाता है, वैसा इसमें नहीं होता । मनुष्य और तिर्यचोंको नियमसे अवधिज्ञान नहीं होता, किंतु जिनको संयम स्थानादिका निमित्त मिलता है, उन्हींको वह प्राप्त होता है । अतएव अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप अन्तरङ्ग निमित्तके दोनों ही जगह समानरूपसे रहने पर भी बाह्य कारण और उसके नियमके भेदसे ही अवधिके दो भेद बताये हैं- एक भवप्रत्यय दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक । इसके सिवाय अवधिज्ञानका तर तम रूप दिखानेके लिये देशावधि परमावधि और सर्वावधि इस तरहसे उसके तीन भेद भी बताये हैं | देव नारकी तिर्यच और सागार मनुष्य इनके देशावधि ज्ञान ही हो सकता है । बाकी के दो भेद - परमावधि और सर्वावधि मुनियोंके ही हो सकते हैं । इनका विशेष खुलासा और इनके द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप विषयका भेद गोम्मटसार जीवकाण्ड आदिसे जानना चाहिये । भाष्यम् - उक्तमवधिज्ञानम् । मनःपर्यायज्ञानं वक्ष्यामः । अर्थ - लक्षण और विधानपूर्वक अवधिज्ञानका वर्णन उक्त रीति से किया । अब उसके बाद मनःपर्यायज्ञानका वर्णन क्रमानुसार प्राप्त है । अतएव उसके भी लक्षण और विधानभेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं । सूत्र - ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः ॥ २४ ॥ ४९ भाष्यम् – मनः पर्यायज्ञानं द्विविधं ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानं विपुलमति मनःपर्या यज्ञानं च । अत्राह - कोऽनयोः प्रतिविशेषः ? इति । अत्रोच्यते । अर्थ — मनःपर्यायज्ञानके दो भेद हैं- एक ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञान और दूसरा विपुल मतिमनःपर्यायज्ञान | भावार्थ -- जीवके द्वारा ग्रहण में आई हुई और मनके आकार में परिणत द्रव्य विशेष रूप मनोवर्गणाओंके अवलम्बनसे विचाररूप पर्यायोंको इन्द्रिय और अनिन्द्रियकी अपेक्षा लिये विना ही साक्षात् जानता है, उसको मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । सम्पूर्ण प्रमादसे रहित और जिसको मनःपर्यायज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम प्राप्त हो चुका है, उस साधुको यह एक अत्यंत विशिष्ट और क्षायोपशमिक किंतु प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके कि निमित्तसे वह साधु मनुष्य लोकवर्ती मनः पर्याप्तिके धारण करनेवाले पंचेन्द्रिय प्राणीमात्रके त्रिकाल मनोगत विचारोंको विना इन्द्रिय और मनकी सहायताके ही जान सकता है । १ – मध्यलोकमें ढाई द्वीप ( प्रमाणाङ्गुलसे ४५ लाख योजन ) चौड़े और मेरुप्रमाण ऊंचे क्षेत्रको मनुष्य क्षेत्र कहते हैं । २ - शक्ति विशेषकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं । इसके छह भेद हैं-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्रास भाषा और मन | इनमें से एकेन्द्रियके ४, दोइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रियतकके ५, और संज्ञी पंचेन्द्रिय के छहों होती हैं । यथा-" आहारसरी रिदियपज्जत्ती आणपाणभासमणो । चत्तारि पंच छप्पिय एइंदियवियलसण्णिसण्णीणं ' ॥ ११८ ॥ गोम्मटसार जीवकांड | जिन जीवोंकी मनोवर्गणाओंको द्रव्य मनके आकार में परणमानेकी शक्ति पूर्ण हो जाती है उनको मनःपर्याप्त कहते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र समझना । जिनकी शरीरपर्याप्ति भी पूर्ण नहीं हो पाती किन्तु मरण हो जाता है, उनका लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । भवग्रहण के प्रथम अर्न्तमुहूर्त कालमें ही अपने अपने योग्य पर्याप्तियोंकी पूर्णता हो जाती है, तथा इनका प्रारम्भ युगपत् किंतु पूर्णता क्रमसे हुआ करती है । फिर भी प्रत्येक पर्याप्तिका काल अन्तर्मुहूर्त ही है । क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्यात भेद हैं । ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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