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________________ सूत्र २१-२२ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्र-दिविधोऽवधिः ॥ २१ ॥ भाष्यम्-भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च। तत्रअर्थ-अवधिज्ञान दो प्रकारका है-एक भवप्रत्यय दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक । उनमेंसे सूत्र-भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ॥ २२ ॥ • भाष्यम्-नारकाणां देवानां च यथास्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । भवप्रत्ययं भवहेतुकं भवनिमित्तमित्यर्थः । तेषां हि भवोत्पत्तिरेव तस्य हेतुर्भवति पक्षिणामाकाशगमनवत् न शिक्षा न तप इति ॥ ____ अर्थ-नारक और देवोंके जो यथायोग्य अवधिज्ञान होता है, वह भवप्रत्यय कहा जाता है । यहाँपर प्रत्यय शब्दका अर्थ हेतु अथवा निमित्तकारण समझना चाहिये । अतएव भवप्रत्यय या भवहेतुक अथवा भवनिमित्त ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । क्योंकि नारक और देवोंके अवधिज्ञानमें उस भवमें उत्पन्न होना ही कारण माना है। जैसे कि पक्षियोंको आकाशमें गमन करना स्वभावसे-उस भवमें जन्म लेनेसे ही आ जाता है, उसके लिये शिक्षा और तप कारण नहीं है, उसी प्रकार जो जीव नरक गति अथवा देवगतिको प्राप्त होते हैं, उनको अवधिज्ञान भी स्वयं प्राप्त हो ही जाता है। भावार्थ-यद्यपि अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे ही प्राप्त होता है। परन्तु फिर भी देव और नारकियोंके अवधिज्ञानको क्षयोपशमनिमित्तक न कह कर भवहेतुक ही कहा जाता है । क्योंकि वहाँपर भवकी प्रधानता है । जो उस भवको धारण करता है, उसके नियमसे अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम हो ही जाता है । अतएव बाह्यकारणकी प्रधानतासे देव और नारकियोंके अवधिज्ञानको भवप्रत्यय ही माना है । जिसको किसीका उपदेश मिल जाय, अथवा जो अनशन आदि तप करे, उसी देव या नारकीको वह हो अन्यको न हो, ऐसा नहीं हैं । क्योंकि इन दोनों ही गतियों में शिक्षा और तप इन दोनों ही कारणोंका अभाव है: इसके लिये यथायोग्य शब्द जो दिया है उसका अभिप्राय यह है, कि सभी देव अथवा नारकियोंके अवधिज्ञान समान नहीं होता। जिसके जितनी योग्यता है, उसके उतना ही ' समझना चाहिये । १-“तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ” एवंविधः सूत्रपाठोऽन्यत्र ।। २-" यथास्वमिति यस्य यस्यात्मीयं यद्यदित्यर्थः । तद्यथा-रत्नप्रभापृथिवीनरकनिवासिनां ये सर्वोपरि तेषामन्यादृशम्, ये तु तेभ्योऽधस्तात् तेषां तस्यामेवावनावन्यादृक् प्रस्तारापेक्षयेति एवं सर्व पृथिवीनारकाणां यथास्वमित्येतन्नेयम् । देवानामपि यद्यस्य सम्भवति तच्च यथास्वमिति विज्ञेयम् भवप्रत्ययं भवकारणं अधोऽधो विस्तृतविषयमवधिज्ञानं भवति।"-सिद्धसेनगणि टीकायाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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