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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथमोऽध्यायः रूपसे उसकी रचना न कीगई होती, तो समुद्रको तरनेके समान वह दुरवगम्यही हो गया होता । अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य समुद्रको तर नहीं सकता, उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति श्रुतका भी पार नहीं पा सकता थाः। इसी कथनसे पूर्वोका वस्तुओंका प्राभूतोंका प्राभृतप्राभृतोंका अध्ययनोंका तथा उद्देशोंका भी व्याख्यान समझ लेना चाहिये । अर्थात् पूर्वोक्त कथनमें ही पूर्व आदिकोंका भी कथन आ जाता है। शंका-आगे चलकर ऐसा कहेंगे कि " द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु " अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय सम्पूर्ण द्रव्य किन्तु उनकी कुछ पर्याय हैं । इससे स्पष्ट है, कि आचार्य दोनों ज्ञानोंका विषय समान ही बतावेंगे। अतएव दोनों ज्ञानोंकी एकता-समानता ही रहनी चाहिये ? आपने भिन्नता कैसे कहीं ? उत्तर-यह बात हम पहले ही कह चुके हैं, कि मतिज्ञान वर्तमान कालविषयक है, और श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक है, तथा मतिज्ञानकी अपेक्षा अधिक विशुद्ध भी है । अर्थात् यद्यपि दोनोंका विषयनिबन्ध सामान्यतया एक ही है, परन्तु विषयों में कालकृत भेद रहनेसे उनमें अन्तर भी है। तथा दोनोंमें विशद्धिकी अपेक्षासे भी भेद है । इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि इन्द्रियनिमित्तक हो अथवा अनिन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान तो आत्माकी ज्ञस्वभावताके कारण पारणामिक है, परन्तु श्रुतज्ञान ऐसा नहीं है, क्योंकि वह आप्तके उपदेशसे मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है। भावार्थ-श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-ज्ञानरूप और शब्दरूप । इनमेंसे ज्ञानरूप मुख्य है, और शब्दरूप गौण है। इनके भेद प्रभेद और उनके अक्षर पद आदिका स्वरूप तथा प्रमाण एवं विषय आदिका विस्तृत वर्णन गोम्मटसार जीवकाण्ड आदिमें देखना चाहिये । भाष्यम्-अत्राह-उक्तं श्रुतज्ञानम् । अथावधिज्ञानं किमिति, अत्रोच्यते अर्थ-प्रश्न-आपने श्रुतज्ञानका जो स्वरूप कहा, सो समझमें आया। परंतु श्रुतज्ञानके बाद जिसका आपने नामनिर्देश किया था, उस अवधिज्ञानका क्या स्वरूप है ? इसका उत्तर - देनेके लिये सूत्र कहते हैं -पूर्व वस्तु प्राभूत और प्राभूतप्राभूत आदि अङ्गोंके ही भेदोंके नाम हैं । यथा-पज्जायक्खरपद संघादं पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ॥ ३१६ ॥ तेसिं च समासेहिं य वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंतित्ति ॥३१७॥ (गोम्मटसार-जीवकांड ) इसके सिवाय बारहवें अंगके पाँच भेद हैं-परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग पूर्वगत और चूलिका । इसमें परिकर्मके पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । चौथे भेद पूर्वगतके १४ भेद हैं, जिनको कि १४ पूर्व कहते हैं, यथा-उत्पादपूर्व आग्रायणी वीर्यानुवाद अस्तिनास्तिप्रवाद सत्यप्रवाद ज्ञानप्रवाद आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद प्रत्याख्यान पूर्वविद्यानुवाद कल्याणवाद प्राणवाद क्रियाविशाल और त्रिलोकविन्दुसार । चूलिकाके पाँच भेद है-जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता और रूपगता । इनका विशेष स्वरूप जीवकाण्डमें देखना चाहिये । २-" अत्थादो अत्यंतरमुबलभतं भणंति सुदणाणं । आभिणियोहिय पुब्बं णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥३१४ ॥ (गोम्मटसार जीवकांड ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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