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________________ सूत्र २० ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । इत्यादि । इसी प्रकार ऋषियोंके द्वारा कहे हुए और भी अनेक भेद समझ लेने चाहिये। अङ्ग प्रविष्टके बारह भेद कौनसे हैं, सो बताते हैं-आचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग स्थानाङ्ग समवायाङ्ग व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययनदशाङ्ग अन्तकृदशाङ्ग अनुत्तरौपादिकदशाङ्ग प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्र और दृष्टिपाताङ्ग । शंका-मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें क्या विशेषता है ? उत्तर-जो उत्पन्न तो हो चुका है, किंतु अभीतक नष्ट नहीं हुआ है, ऐसे पदार्थको ग्रहण करनेवाला तो मतिज्ञान है, अर्थात् मतिज्ञान केवल वर्तमानकालवर्ती ही पदार्थको ग्रहण करता है। किंतु श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक है, वह उत्पन्न-वर्तमान और विनष्ट-भूत तथा अनुत्पन्न-भविष्यत् इस तरह तीनों काल सम्बन्धी पदार्थों को ग्रहण करता है । प्रश्न- मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका भेद समझमें आया। परन्तु श्रुतज्ञानके जो भेद बताये हैं, उनमें एकके अनेक भेद और एकके बारह भेद बताये, सो इनमें क्या विशेषता है ? उत्तर-श्रुत ज्ञानके ये दो भेद वक्ताकी विशेषताकी अपेक्षासे हैं। अपने स्वभावके अनुसार प्रवचनकी प्रतिष्ठापना-प्रारम्भ करना ही जिसका फल है, ऐसे परम शुभ तीर्थकर नामकर्मके उदयसे सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमर्षि अरिहंत भगवान्ने जो कुछ कहा है, और जिसकी उत्तम-अतिशयसे युक्त वचनऋद्धि तथा बुद्धिऋद्धिसे परिपूर्ण अरिहंत भगवान्के सातिशय शिष्य गणधर भगवानके द्वारा रचना हुई है, उसको अङ्गप्रविष्ट कहते हैं। गणधर भगवानके अनन्तर होनेवाले आचार्योंके द्वारा जिनकी कि वचनकी शक्ति और मतिज्ञानकी शक्ति परम प्रकर्षको प्राप्त हो चुकी है, तथा जिनका आगम-श्रुतज्ञान अत्यंत विशुद्ध है, काल दोषसे तथा संहनन और आयुकी कमी आदिके दोषसे जिनकी शक्ति अत्यंत कम होगई है, ऐसे शिष्योंपर अनुग्रह करनेके लिये जिनकी रचना हुई है, उनको अङ्गबाह्य कहते हैं। ___ मतिज्ञानकी अपेक्षा श्रुतज्ञानका विषय महान् है। क्योंकि उसमें जिन विषयोंका वर्णन किया गया है, अथवा उसके द्वारा जिन विषयोंका ज्ञान होता है, वे ज्ञेय-प्रमेयरूप विषय अनन्त हैं, तथा उसका प्रणयन-निरूपण सर्वज्ञके द्वारा हुआ है। उसका विषय अतिशय महान् है, इसी लिये उसके एक एक अर्थको लेकर अधिकारोंकी रचना की गई है, और तत्तत् अधिकारोंके प्रकरणकी समाप्तिकी अपेक्षासे उसके अङ्ग और उपाङ्गरूपमें नाना भेद हो गये हैं। इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि ऐसा होनेसे उन विषयोंका सुखपूर्वक ग्रहण हो सकता है-उनका निरूपित तत्त्व अच्छी तरह समझमें आसकता है, और उनका धारण भी हो सकता है-याद रक्खा जा सकता है । तथा उनको जानकर उनके विषयमें मनन अथवा ऊहापोह भी किया जा सकता है । और उसके बाद उसका निश्चय भी भले प्रकार हो सकता है, एवं हेयको हेय समझकर उसके त्याग करनेरूप तथा उपादेयको उपादेय समझकर उसके ग्रहण करनेरूप प्रयोग भी अच्छी तरह किया जा सकता है । यदि अङ्ग और उपाङ्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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