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सूत्र १५-१६ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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निराकार है । उसके बाद उस पदार्थका ग्रहण होता है, जोकि सर्विकल्प अथवा साकार हुआ करता है, जैसे कि यह मनुष्य है, इत्यादि । इस ज्ञानके बाद उस पदार्थको विशेष - रूपसे जाननेके लिये जब यह शंका हुआ करती है, कि यह मनुष्य तो है, परन्तु दाक्षिणात्य है, अथवा औदीच्य है ? तब उस शंकाको दूर करने के लिये उसके वस्त्र आदिकी तरफ दृष्टि देने से यह ज्ञान होता है, कि यह दाक्षिणात्य होना चाहिये । इसीको ईहा कहते हैं । जब उस मनुष्य के निकट आ जानेपर बातचीत के सुनने से यह दृढ़ निश्चय होता है, कि यह दाक्षिणात्य ही है, तब उसको अपाय कहते हैं । परन्तु उसी ज्ञानमें ऐसे संस्कारका हो जाना, कि जिसके निमित्तसे वह अधिक कालतक ठहर सके, उस संस्कृत ज्ञानको ही धारणा कहते हैं । इसके होनेसे ही कालान्तरमें उस जाने हुए पदार्थका स्मरण हो सकता है ।
ये अवग्रहादिक कितने प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करनेवाले हैं, यह बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र - बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
भाष्यम् – अवग्रहादयश्चत्त्वारो मतिज्ञानविभागा एषां बहादीनामर्थानां सेतराणां भवन्त्येकशः । सेतराणामिति सप्रतिपक्षाणामित्यर्थः । बह्ववगृह्णाति अल्पमवगृह्णाति, बहुविधमवगृह्णाति एकविधमवगृह्णाति, क्षिप्रमवगृह्णाति चिरेणावगृह्णाति, अनिश्रितमवगृह्णाति निश्रितमवगृह्णाति, अनुक्तमवगृह्णाति उक्तमवगृह्णाति, ध्रुवमवगृह्णाति अध्रुवमवगृह्णाति इत्येमहादीनामपि विद्यात् ।
अर्थ- बहु बहुविध क्षिप्र अनिश्रित अनुक्त और ध्रुव ये छह और छह तर अर्थात् इनसे उल्टे, अर्थात् बहुका उल्टा अल्प, बहुविधका उल्टा एकविध, क्षिप्रका उल्टा चिरेण, अनिश्रितका उल्टा निश्रित, अनुक्तका उल्टा उक्त और ध्रुवका उल्टा अध्रुव । इस तरहसे बारह प्रकार के अर्थ हैं । मतिज्ञानके अवग्रहादिक चार भेद जो बताये हैं, उनमें से प्रत्येक भेद इन बारहों तरहके अर्थोंके हुआ करते हैं । अर्थात् अवग्रह इन विषयोंकी अपेक्षा से बारह प्रकारका है-बहुका अवग्रह, अल्पका अवग्रह, बहुविधका अवग्रह, एकविधका अवग्रह, क्षिप्रका अवग्रह, चिरेणका अवग्रह, अनिश्रितका अवग्रह, निश्रितका अवग्रह, अनुक्तका अवग्रह, उक्तका अवग्रह, ध्रुवका अवग्रह, अध्रुवका अवग्रह । इसी तरहसे ईहादिकके भी बारह बारह भेद समझ लेने चाहिये ।
भावार्थ -- अवग्रहादिक ज्ञानरूप क्रियाएं हैं, अतएव उनका कर्म भी अवश्य बताना चाहिये | इसीलिये इस सत्र में ये बारह प्रकार के कर्म बताये हैं । एक जातिकी दोसे अधिक संख्यावाली वस्तुको बहु कहते हैं । और एक जातिकी दो संख्या तककी वस्तुको अप
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१ - असंदिन्धमवगृह्णाति, संदिग्धमवगृह्णातीति पाठान्तरम् ।
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