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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ प्रथमोऽध्यायः कहते हैं। दोसे अधिक जातिवाली वस्तुओंको बहुविध कहते हैं, और दो तककी जातिवाली वस्तुओंको एकविध अथवा अल्पविध कहते हैं। शीघ्र गतिवाली वस्तुको क्षिप्र और मंद गतिवालीको चिरेण कहते हैं । अप्रकटको अनिश्रित और प्रकटको निश्रित कहते हैं। विना कही हुईको अनुक्त और कही हुईको उक्त कहते हैं। और तदवस्थको ध्रुव तथा उससे प्रतिकूलको अध्रुव कहते हैं। बहु आदिक शब्द विशेषणवाची हैं, अतएव ये विशेषण किसके हैं, यह बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-अर्थस्य ॥ १७ ॥ भाष्यम्-अवग्रहादयो मतिज्ञानविकल्पा अर्थस्य भवन्ति । अर्थ-अवग्रह आदिक मतिज्ञानके जो भेद बताये हैं, वे अर्थके हआ करते हैं । भावार्थ-यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि ऊपर बहु आदिक जो विशेषण बताये हैं, वे किसी न किसी विशेष्यके तो होंगे ही, और विशेष्य जो होगा, वह पदार्थही होगा, अतएव ये अर्थ-पदार्थके विशेषण हैं, यह बतानेके लिये सूत्र करनेकी क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है, कि किसी किसी मतवालेने ज्ञानका साक्षात् विषय पदार्थको नहीं माना है; किंतु ज्ञानका साक्षात् विषय विशेषणको ही माना है, और समवाय समवेतसमवाय संयुक्तसमवेतसमवाय आदि सम्बन्धोंके द्वारा पदार्थको विषय माना है । सो ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञानमें विशेष्य विशेषण एक साथ ही विषय होते हैं । क्योंकि दोनोंमें कथंचित् अभेद है । एक दूसरेको सर्वथा छोड़कर ज्ञानका विषय नहीं हो सकता । अतएव विशेषणके साथ साथ विशेष्यरूप पदार्थ भी विषय होता ही है, यह बताना ही इस सूत्रका प्रयोजन है । और इसी लिये यहाँपर यह कहा है, कि मतिज्ञानके अवग्रहादिक भेद अर्थके हुआ करते हैं। - विशेष्यरूप पदार्थ दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक व्यक्त दूसरे अव्यक्त । व्यक्तको अर्थ और अव्यक्तको व्यंजन कहा करते हैं । इस सूत्रमें व्यक्त पदार्थके ही अवग्रहादिक बताये हैं; क्योंकि अव्यक्तके विषयमें कुछ विशेषता है । वह विशेषता क्या है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-व्यंजनस्यावग्रहः ॥१८॥ भाष्यम्-व्यंजनस्यावग्रह एव भवति नेहादयः। एवं द्विविधोऽवग्रहो व्यंजनस्यार्थस्य च । ईहादयस्त्वर्थस्यैव ॥ ___ अर्थ-व्यंजन पदार्थका अवग्रह ही होता है, ईहा आदिक नहीं होते, इस तरहसे अवग्रह तो दोनों ही प्रकारके पदार्थका हुआ करता है, व्यंजनका भी और अर्थका भी जिनको कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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