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________________ सूत्र १३-१४ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३७ अर्थ-शंका-ऊपर आपने मतिज्ञानादिकका सामान्यसे नाममात्र उल्लेख करके यह कहा था, कि इनके भेद और लक्षणोंको हम आगे चलकर विस्तारके साथ कहेंगे, सो अब उनका वर्णन करना चाहिये । उत्तर-यह बतानेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं । इसमें क्रमानुसार सबसे पहले मतिज्ञानके भेद बताते हैं: सूत्र-मतिःस्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥१३॥ भाष्यम्-मतिज्ञानं, स्मृतिज्ञानं, संज्ञाज्ञानं, चिन्ताज्ञानं, आभिनिबोधिकज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ॥ अर्थ-मतिज्ञान स्मृतिज्ञान संज्ञाज्ञान चिन्ताज्ञान और आमिनिबोधिकज्ञान ये पाँचों ही ज्ञान एक ही अर्थके वाचक हैं । भावार्थ-ये मतिज्ञानके ही भेद हैं, क्योंकि मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेसे ही होते हैं, अतएव इनको एक ही अर्थका वाचक माना है । वस्तुतः ये भिन्न भिन्न विषयके प्रति. पादक हैं, और इसी लिये इनके लक्षण भी भिन्न भिन्न ही हैं । अनुभव स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान ये क्रमसे पाँचोंके अपर नाम हैं। इन्द्रिय अथवा मनके निमित्तसे किसी भी पदार्थका जो आद्यज्ञान होता है, उसको अनुभव अथवा मतिज्ञान कहते हैं। कालान्तरमें उस जाने हुए पदार्थका “ तत्-वह " इस तरहसे जो याद आना इसको स्मृति कहते हैं। अनुभव और स्मृति इन दोनोंके जोडरूप ज्ञानको संज्ञा अथवा प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । साध्य और साधनके अविनाभावसम्बन्धरूप व्याप्तिके ज्ञानको चिन्ता अथवा तर्क कहते हैं । और साधनके द्वारा जो साध्यका ज्ञान होता है, उसको अनुमान अथवा अभिनिबोध कहते हैं। इनमें से मतिज्ञानमें प्रत्यक्षका और प्रत्यभिज्ञानमें उपमानका तथा अनुमानमें अर्थापत्तिका अन्तर्भाव समझना चाहिये । और इसी प्रकारसे आगम तथा अभावप्रमाणका भी अन्तर्भाव यथा योग्य समझ लेना चाहिये। मतिज्ञानका सामान्य लक्षण बताते हैं: सूत्र-तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ भाष्यम्-तदेतन्मतिज्ञानं द्विविधं भवति। इन्द्रियनिमित्तमनिन्द्रियनिमितं च। तत्रन्द्रिय. निमित्तं स्पर्शनादीनां पञ्चानां स्पर्शादिषु पञ्चस्वेव स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोघज्ञानं च। अर्थ-उपर्युक्त पाँच प्रकारका मतिज्ञान दो तरहका हुआ करता है- एक तो इन्द्रिय निमित्तक दूसरा अनिन्द्रिय निमित्तक । इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र । १-जो सिद्ध किया जाय या अनुमानका विषय हो, उसको साध्य कहते हैं, जैसे पर्वतमें अग्नि । २-- साध्यके अविनाभावी चिन्हको साधन कहते हैं, जैसे अग्निका साधन धूम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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