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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
प्रमाण मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि ये इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षका निमित्त पाकर ही उत्पन्न होनेवाले हैं। दूसरी बात यह है, कि ये वस्तुतः प्रमाण ही नहीं हैं। क्योंकि ये मिथ्यादर्शनके सहचारी हैं, तथा विपरीत उपदेशसे उत्पन्न होनेवाले और विपरीत ही उपदेशको देनेवाले हैं । मिथ्यादृष्टिके जो मति श्रुत या अवधिज्ञान होता है, वह नियमसे अप्रमाण ही होता है, यह बात आगे चलकर कहेंगे भी। परन्तु समीचीन नयवादके द्वारा मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके जो जो और जिस जिस प्रकारसे भेद होते हैं, उनको भी आगे चलकर बतावेंगे।
भावार्थ-आत्माके सिवाय पर पदार्थ इन्द्रिय और मनकी सहायताकी जिसमें अपेक्षा नहीं है, उस ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं, और इसीलिये इसका नाम अतीन्द्रिय भी है। बहुतसे लोग ऐन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय ज्ञानको परोक्ष कहते हैं, परन्तु यह बात ठीक नहीं है । क्योंकि सर्वज्ञ परमात्माके प्रत्यक्ष ज्ञान ही माना है, और यदि दह इन्द्रियजन्य माना जायगा, तो उसकी सर्वज्ञता स्थिर नहीं रह सकेगी, क्योंकि इन्द्रियोंका विषय आदि अल्प
और नियत है। अतएव अक्ष नाम आत्माका है, जो ज्ञान उसीकी अपेक्षा लेकर उत्पन्न हो, उसको प्रत्यक्ष और जो पर-अर्थात् आत्मासे भिन्न इन्द्रियानिन्द्रयकी सहायतासे हो उसको परोक्ष ज्ञान समझना चाहिये । . प्रत्यक्ष ज्ञानके सामान्यसे दो भेद हैं-एक देशप्रत्यक्ष दूसरा सकलप्रत्यक्ष । अवधि और मनःपर्ययको देशप्रत्यक्ष कहते हैं। क्योंकि इनका विषय नियत और अपरिपर्ण है । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है । क्योंकि वह सम्पूर्ण कालिक वस्तुओंको और उनकी अनन्तानन्त अवस्थाओंको विषय करनेवाला और नित्य है । इसके सिवाय मतिज्ञानको भी उपचारसे अथवा व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहते हैं । क्योंकि श्रुतज्ञानकी अपेक्षा उसमें अधिक स्पष्टता रहा करती है । मुख्यरूपसे वह परोक्ष ही है।।
___ अवधि मनःपर्यय और केवल ये प्रत्यक्षके समीचीन भेद भी प्रमाण ही हैं। यद्यपि अन्य मतवालोंने ऊपर लिखे अनुसार अनुमान उपमान आदिको भी प्रमाण माना है । परन्तु उनका लक्षण अपरिपूर्ण होनेसे युक्तिशून्य और मिथ्यादर्शनादिसे दूषित है। किन्तु समीचीन अनुमानादिकका लक्षण आगे चलकर हम लिखेंगे और बतायेंगे, कि इनमें से किस किस का मतिज्ञानादिमेंसे किस किस में किस किस अपेक्षासे अन्तर्भाव होता है, तथा उनके-मतिज्ञानादिके भेद कौन कौन से हैं।
भाष्यम्-अत्राह, उक्तं भवता मत्यादीनि ज्ञानानि उद्दिश्य तानि विधानतो लक्षणतश्च परस्ताद्विस्तरेण वक्ष्याम इतिः; तदुच्यतामिति । अत्रोच्यतेः
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