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________________ सूत्र १०-११-१२।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३५ नुसार आदिके दो परोक्ष प्रमाण समझने चाहिये, ऐसी आचार्यकी आज्ञा है । इस प्रकारसे आदिके दो ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं, यह बात सिद्ध होती है । इनको परोक्ष प्रमाण क्यों कहते हैं, तो इसका उत्तर यह है, कि ये दोनों ही ज्ञान निमित्तकी अपेक्षा रखते हैं। मतिज्ञान अपायसद्व्यतया परोक्ष है । क्योंकि आगे चलकर ऐसा सूत्र भी कहेंगे कि “ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् " अर्थात् आत्मासे भिन्न स्पर्शनादिक पाँचों इन्द्रियों तथा अनिन्द्रिय-मनके निमित्तसे मतिज्ञान उत्पन्न होता है, अतएव वह अपायसद्र्व्यरूप है और इसी लिये परोक्ष भी है । क्योंकि निमित्त नित्य नहीं है। श्रुतज्ञान भी परोक्ष है । क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है, और दूसरेके उपदेशसे उत्पन्न होता है । भावार्थ-जिस ज्ञानके उत्पन्न होनेमें आत्मासे भिन्न पर वस्तुकी अपेक्षा हो, उसको परोक्ष कहते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें इन्द्रिय और मन जो कि आत्मासे भिन्न पुद्गलरूप हैं, निमित्त हुआ करते हैं,अतएव इनको परोक्ष कहते हैं। विशेषता यह है,कि इनमें से मतिज्ञानमें तो इन्द्रिय और मन दोनों ही निमित्त पड़ते हैं, परन्तु श्रुतज्ञानमें केवल मन ही निमित्त पड़ता है। किंतु वह मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, अतएव उपचारसे उसमें इन्द्रियाँ भी निमित्त पड़ती हैं । जैसे कि परोपदेशके सुननेमें श्रोत्रइन्द्रिय निमित्त है । इस सुननेको ही मतिज्ञान कहते हैं । सुने हुए शब्दके विषयमें अथवा उसका अवलंबन लेकर अर्थान्तरके विषयमें विचार करनेको श्रुतज्ञान कहते हैं । सो इसमें मुख्यतया बाह्य निमित्त मन ही है । परन्तु उपचारसे श्रोत्रेन्द्रिय भी निमित्त कहा जा सकता है । क्योंकि बिना सुने विचार नहीं हो सकता । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये । प्रत्यक्षका स्वरूप और उसके भेद बतानेको सूत्र कहते हैं--- सूत्र-प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ भाष्यम्-मतिश्रुताभ्यां यदन्यत् त्रिविधं ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति । कुतः १ अतीन्द्रियत्वात् । प्रमीयन्तेऽस्तैिरिति प्रमाणानि । अत्राह-इह अवधारितं द्वे एव प्रमाणे प्रत्यक्षपरोक्षे इति । अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि च प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेतदिति। अत्रोच्यते सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्त्वात्। किंचान्यत्-अप्रमाणान्येव वा । कुतः ? मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृष्टर्हि मतिश्रुतावधयो नियतमज्ञानमेवेति वक्ष्यते । नयवादान्तरेण तु यथा मतिश्रुतविकल्पजानि भवन्ति तथा परस्ताद्वक्ष्यामः।। अर्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको छोड़कर बाकीके अवधि मनःपर्यय और केवल ये तीन प्रकारके जो ज्ञान हैं, वे प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। क्योंकि ये अतीन्द्रिय हैं। जिनके द्वारा पदार्थोंको भले प्रकारसे जाना जाय, उनको प्रमाण कहते हैं । शंका-यहाँपर प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण बताये हैं; परन्तु कोई अनुमान उपमान आगम अर्थापत्ति और अभावको भी प्रमाण मानते हैं, सो यह किस तरहसे माना जाय ? उत्तर-सबसे पहली बात तो यह है, कि ये सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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