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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
भावार्थ - बाह्य और अन्तरङ्ग दोनों निमित्तोंके मिलनेपर चेतना गुणका जो साकार परिणमन होता है, उसको ज्ञान कहते हैं । सामान्यसे इसके पाँच भेद हैं । पाँचोंके स्वरूप विषय और कारण भिन्न भिन्न हैं । इनका विशेष खुलासा आगे चलकर क्रमसे लिखेंगे ।
पाँचों ही प्रकारके ज्ञान दो भागोंमें विभक्त हैं - एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष । तथा ये दोनों ही भेद प्रमाण हैं । इसी बात को बतानेके लिये यहाँपर सूत्र कहते हैं ।
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सूत्र -- तत्प्रमाणे ॥ १० ॥
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भाष्यम् -- तदेतत्पञ्चविधमपि ज्ञानं द्वे प्रमाणे भवतः परोक्षं प्रत्यक्षं च । अर्थ - पूर्वोक्त पाँच प्रकारका ज्ञान प्रमाण है, और उसके दो भेद हैं, एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष ।
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भावार्थ - जिसके द्वारा वस्तुस्वरूपका परिच्छेदन हो, उसको प्रमाण कहते हैं । यह प्रमाण अनेक सिद्धान्तवाल ने भिन्न भिन्न प्रकारका माना है । कोई सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं । कोई निर्विकल्पदर्शनको, कोई कारकसाकल्यको और कोई, वेदको ही प्रमाण मानते हैं । इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाएं हैं, जो कि युक्तियुक्त या वास्तविक न होने के कारण प्रमाणके प्रयोजनको सिद्ध करनेमें असमर्थ हैं । अतएव आचार्यने यहाँपर प्रमाणका निर्दोष लक्षण बताया है, कि उपर्युक्त सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण समझना चाहिये । प्रमाणके भेद भी भिन्न भिन्न मतवालों ने भिन्न भिन्न प्रकारसे माने हैं । कोई एक प्रत्यक्षको ही मानते हैं, तो कोई प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो भेद मानते हैं, कोई प्रत्यक्ष अनुमान उपमान ऐसे तीन, तो कोई प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम ऐसे चार भेद मानते हैं, कोई इन्हीं चारको अर्थापत्तिके साथ करके पाँच और कोई अभावको भी जोड़कर छह प्रमाण मानते हैं । इत्यादि प्रमाणके भेदोंके विषय में भी अनेक कल्पनाएं हैं, जो कि अव्याप्ति आदि दूषण से युक्त होने के कारण अवास्त विक हैं । अतएव आचार्यैने यहाँपर प्रमाणके दो भेद गिनाये हैं, एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष जो कि सर्वथा निर्दोष हैं, और इसी लिये इष्ट अर्थके साधक हैं, तथा इन्हींमें प्रमाणके सम्पूर्ण भेदोंका अन्तर्भाव हो जाता है ।
क्रमानुसार पहले परोक्षका स्वरूप और उसके भेद बताते हैं: सूत्र - आये परोक्षम् ॥ ११ ॥
भाष्यम् -- आदौ भवमाद्यम् । आद्ये सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्रथमद्वितीये शास्ति । तदेव - माघे मतिज्ञानश्रुतज्ञाने परोक्षं प्रमाणं भवतः । कुतः ? निमित्तापेक्षत्वात् । अपायसद्द्रव्यतया मतिज्ञानम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमिति वक्ष्यते । तत्पूर्वकत्वात्परोपदेशजत्वाच्च श्रुतज्ञानम् । अर्थ -- जो आदिमें हो उसको आद्य कहते हैं । यहाँपर आये ऐसा द्विवचनका प्रयोग किया है, अतएव
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मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्
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इस सूत्र के पाठ क्रमके प्रमाणा
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