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सूत्र ९ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अर्धपुद्गले परिवर्तन है । किन्तु नाना जीवों की अपेक्षासे अन्तरकाल होता ही नहीं है । अर्थात् जब नाना जीवोंकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शन सदा ही रहा करता है, तो उसका विरहकाल कभी भी नहीं रह सकता, यह बात स्पष्टतया सिद्ध है । हाँ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर पाया जा सकता है, क्योंकि वह उत्पन्न होकर छूट भी जाता है । उत्पन्न होकर छूट जाय, और फिर वही उत्पन्न हो, उसके मध्य में जितना काल लगता है. उसको विरहकाल कहते हैं । एक जीवके सम्यग्दर्शनका विरहकाल कमसे कम अन्तर्मुहूर्त और ज्यादः से ज्यादः अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ।
भावप्ररूपणा - औपशमिकादिकै भावोंमेंसे सम्यग्दर्शनको कौनसा भाव समझना चाहिये ! इसका उत्तर यह है, कि औदयिक और पारणामिक इन दो भावोंको छोड़कर बाकीके तीनों ही भावोंमें सम्यग्दर्शन रहा करता है । अर्थात् सम्यग्दर्शन कहीं औपशमिक कहीं क्षायिक और कहीं क्षायोपशमिक इस तरह तीनों ही भावरूप पाया जा सकता है ।
अल्पबहुत्व प्ररूपणा - औपशमिकादि तीन प्रकारके भावोंमें रहनेवाले तीनों ही सम्यग्दर्शनोंकी संख्या समान है, अथवा उसमें कुछ न्यूनाधिकता है ? उत्तर - तीनोंमेंसे औपशमिक सम्यग्दर्शनकी संख्या सबसे कम है । उससे असंख्यातगुणी क्षायिकसम्यग्दर्शनकी संख्या है, और उससे भी असंख्यातगुणी क्षायोपशमिक की है । परन्तु सम्यग्दृष्टियोंकी संख्या अनंतगुणी है ।
इस प्रकार अनुयोगद्वारोंका स्वरूप बताया । सम्यग्दर्शनादिक तथा उसके विषयभूत जीवादिक सभी पदार्थोंका नाम स्थापना आदिके द्वारा विधिपूर्वक व्यवहार करके प्रमाण नय आदिक उपर्युक्त अनुयोगों के द्वारा अधिगम प्राप्त करना चाहिये | क्योंकि इनके द्वारा निश्चित तत्त्वार्थोंका तथाभूत श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है !
इस प्रकार सम्यग्दर्शनका प्रकरण समाप्त करके क्रमानुसार ज्ञानका वर्णन करते हैं। . सूत्र - मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९ ॥
भाष्यम् – मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं, मन:पर्ययज्ञानं, केवलज्ञानमित्येतन्मूल• विधानतः पञ्चविधं ज्ञानम् । प्रभेदास्त्वस्य पुरस्ताद्रक्ष्यन्ते ॥
अर्थ — मूल भेदोंकी अपेक्षासे ज्ञान पाँच प्रकारका है - मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनके उत्तरभेदोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे ।
१ - संसारमें अनादिकालसे जीवका जो नाना गतियों में परिभ्रमण हो रहा है, उसीको परिवर्तन कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं- द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव । इनका स्वरूप और इनके कालका प्रमाण आगे चलकर लिखेंगे। इनमेंसे पहले द्रव्यपरिवर्तनके कालके आधे कालको अर्धपुद्गलपरिवर्तन समझना चाहिये । २ – औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक औदयिक और पारणामिक |
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