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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
क्षेत्र प्ररूपणा - सम्यग्दर्शन कितने क्षेत्र में रहता है ? इसका उत्तर इतना ही समझना चाहिये, कि लोकके असंख्यातवें भागमें, । अर्थात् असंख्यात प्रदेशरूप तीनसै तेतालीस ( ३४३ ) राजू प्रमाण लोकमें असंख्यातैका भाग देनेसे जितने प्रदेश लब्ध आवें, उतने ही लोकके प्रदेशों में सम्यग्दर्शन पाया जा सकता है ।
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स्पर्शनेप्ररूपणा -- सम्यग्दर्शन कितने स्थानका स्पर्श करता है ? उत्तर - सम्यग्दर्शन तो लोकके असंख्यातवें भागका ही स्पर्श किया करता है, परन्तु सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण लोकका स्पर्श किया करते हैं । यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दर्शन इनमें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर - दोनों में अपाय और सद्द्रव्यकी अपेक्षासे अन्तर है । सम्यग्दर्शन अपाय आभिनिबोधिकरूप है, और सम्यग्दृष्टि सद्द्रव्यरूप हैं । अर्थात् अपाय नाम छूटने का है, सो सम्यग्दर्शनमें इसका सम्बन्ध पाया जात है - सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर छूट जाता है, या छूट सकता है । परन्तु सम्यग्दृष्टिमें यह बात नहीं है । केवली सद्द्रव्यरूप हैं, अतएव उनको सम्यग्दृष्टि कह सकते हैं। सम्यग्दर्शनी नहीं कह सकते हैं । क्योंकि उनमें अपायका योग नहीं पाया जाता ।
कालप्ररूपणा - सम्यग्दर्शन कितने कालतक रहता है ? इसका उत्तर इस प्रकार हैकालकी परीक्षा या प्ररूपणा दो प्रकार से हो सकती है, एक तो एक जीवकी अपेक्षा दूसरी नाना जीवोंकी अपेक्षा । एक जीवकी अपेक्षा से सम्यग्दर्शनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है, और उत्कृष्ट काल छयासठ सागरसे कुछ अधिक है । अर्थात् किसी एक जविके सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक अवश्य रहा करता है । उसके बाद वह छूट सकता है, और ज्यादः से ज्यादः वह कुछ अधिक छयासठ सागर तक रह सकता है, उसके बाद अवश्य छूट जाता है । नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका सम्पूर्ण काल है । अर्थात् कोई भी समय ऐसा नथान है और न होगा, कि जब किसी भी जीवके सम्यग्दर्शन न रहा हो या न पाया जाय ।
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अन्तरप्ररूपणा - सम्यग्दर्शनका विरहकाल कितना है ? उत्तर - एक जीवकी अपेक्षा
१---लोक यह भी उपमामान संख्याका भेद है । क्योंकि उपमामानक आठ भेद हैं--पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतराड्गुल, घनाड्गुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर और लोक । इनका स्वरूप आगे लिखेंगे । जगच्छ्रेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं । २-असंख्यात के भी असंख्यात भेद हैं । वर्तमान कालके आधारको क्षेत्र और तीनों काल आधारको स्पर्शन कहते हैं । ३ -- दिगम्बर सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टिमें इस तरहका अन्तर नहीं माना है । क्योंकि गुण गुणीको छोड़कर नहीं रह सकता । अतएव सम्यग्दर्शन आत्माका गुण है, वह जिनके पाया जाय, उनको सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शनी समझना चाहिये । इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टिका भेद नहीं कहा जा सकता । हाँ सम्यग्दृष्टि जीव दो प्रकारके हुआ करते हैं - संसारी और मुक्त | संसारी जीवोंका सम्यग्दर्शन सादिसति - अन्तर्मुहूर्तसे लेकर कुछ अधिक छ्यासठ सागरतकका होता है, और मुक्त जीवोंका सादिअनन्त होता है ।
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