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________________ सूत्र ८1] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नानि, सम्यग्दृष्टयस्त्वनन्ताः ॥ क्षेत्र, सम्यग्दर्शनं कियितिक्षेत्रे, लोकस्यासंख्येयभागे । स्पर्शनम् । सम्यग्दर्शनेन किंस्पृष्टम् ? लोकस्यासंख्येयभागः, सम्यग्दृष्टिना तु सर्वलोक इति । अत्राह-सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते । अपायसदूद्रव्यतया सम्यग्दर्शनमयाय आभिनिबोधिकम् । तद्योगात्सम्यग्दर्शनम् । तत्केवलिनो नास्ति । तस्मान्न केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु ॥ कालः । सम्यग्दर्शनं कियन्तं कालमित्यत्रोच्यते । तदेकजीवेन नानाजीवैश्च परीक्ष्यम् तद्यथा-एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कृष्टेन षट्षष्ठिः सागरोपमाणि साधिकानि । नानाजीवान् प्रति सर्वाद्धा ॥ अन्तरम्। सम्यग्दर्शनस्य को विरहकालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टेन उपाधपुद्गल परिवर्तः । नानाजीवान प्रति नास्त्यन्तरम् ॥ भावः । सम्यग्दर्शनमौपशमिकादीनां भावानाँ कतमो भावः ? उच्यते । औदयिकपारणामिकवर्ज त्रिषुभावेषु भवति । अल्पबहुत्वम् । अत्राह-सम्यग्दर्शनानां त्रिषु भावेषु वर्तमानानां किं तुल्यसंख्यत्वमाहोस्वदल्पबहुत्वमस्तीति । उच्यते । सर्वस्तोकमौपशमिकम् । ततः क्षायिकमसंख्येयगुणम् । ततोऽपिक्षायोपशमिकमसंख्ययगुणम् । सम्यग्दृष्टयस्त्वनन्तगुणा इति । एवं सर्वभावानां नामादिभिासं कृत्वा प्रमाणादिभिरधिगमः कार्यः॥ उक्तं सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानं वक्ष्यामः । अर्थ-सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा भी जीवादिक तत्त्वोंका तथा सम्यग्दर्शनादिकका अधिगम हुआ करता है। ये सत् संख्या आदि पदोंकी प्ररूपणा आदिक आठ अनुयोग द्वार ऐसे हैं, कि जिनके द्वारा जीवादिक सभी पदार्थोंके भेदोंका क्रमसे विस्तारके साथ अधिगम हुआ करता है। सो किस तरहसे होता है, यही बात यहाँपर बताते हैं और उसके लिये आठों से सबसे पहलीसत्प्ररूपणाको सम्यग्दर्शनका आश्रय लेकर यहा दिखाते हैं । यदि कोई पूछे, कि सम्यग्दर्शन है या नहीं ? तो इस सामान्य प्रश्नका उत्तर भी सामान्यसे यही हो सकता है, कि है, परन्तु उसमें भी यदि कोई विशेषरूपसे प्रश्न करे, कि वह सम्यग्दर्शन कहाँ कहाँपर है, तो उसका उत्तर भी विशेषरूपसे ही होगा, और वह इस प्रकार है, कि सम्यग्दर्शन अजीव द्रव्यमें तो नहीं ही होता, जीवद्रव्यमें ही होता । परन्तु जीवद्रव्यमें भी सबमें नहीं होता, किसीमें होता है किसीमें नहीं होता, किस किस में होता है, इस बातको भी विशेषरूपसे जाननेके लिये गति इन्द्रिय काय योग कषाय वेद लेश्या सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन चारित्र आहार और उपयोग इन तेरह अनुयोगद्वारोंमें आगमानुसार यथासंभव सत्प्ररूपणा घटित करलेनी चाहिये। क्रमानुसार संख्या प्ररूपणाको कहते हैं-सम्यग्दर्शन कितने हैं, संख्यात हैं असंख्यात हैं, या अनंत हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है, कि सम्यग्दर्शन असंख्यात हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि अनन्त हैं। १-- इनको जीवसमास तथा मार्गणा भी कहते हैं । दिगम्बर सिद्धान्तमें इनके चौदह भेद माने हैं-ति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक्त्व संज्ञा और आहार । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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