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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः इसी प्रकार जो पदार्थोंको आधाराधेय भावसे सर्वथा रहित मानते हैं, उनका कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, इस बातको बताने के लिये ही अधिकरण अनुयोगका उल्लेख किया है। यद्यपि निश्चयनयसे कोई भी पदार्थ न किसीका आधार है, और न किसीका आधेय है । आकाशके समान सभी पदार्थ स्वप्रतिष्ठ ही हैं । परन्तु सर्वथा ऐसा ही नहीं है। क्योंकि द्रव्यगुण आदिका भी आधाराधेयभाव प्रमाणसे सिद्ध है । अतएव पदार्थों के परिमाणकृत अल्पबहुत्व अथवा व्याप्यव्यापक भावका बताना आवश्यक है, और यह बताना ही चौथे अनुयोग-अधिकरणका प्रयोजन है। कोई कोई मतवाले पदार्थको क्षणनश्वर मानते हैं, और इसीलिये वे उसकी स्थितिको वस्तुभूत नहीं मानते । परन्तु सर्वथा ऐसा माननेसे पदार्थोंके निरन्वय नाशका प्रसङ्ग आता है। और पुण्य पापका अनुष्ठान भी व्यर्थ ही ठहरता है । अतएव यह बतानेकी आवश्यकता है, कि जन पदार्थ कथंचित् अनित्य है और कथंचित् नित्य है, तो उसकी अनित्यताके कालका प्रमाण कितना है। और इसी लिये ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्षणमात्रका कालप्रमाण तथा द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा अनेक क्षणका उसका काल प्रमाण है, यह बताना ही पाँचवें अनुयोगस्थितिका प्रयोजन है। सम्पूर्ण सद्भूत तत्त्व एकरूप ही है। उसके आकार या विशेष भेद वास्तविक नहीं हैं। ऐसा किसी किसी का कहना है, सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि वस्तुके नाना आकारोंके विना एकरूपता भी बन नहीं सकती । सम्पूर्ण पदार्थोंको एकरूप कहना ही अनेक भेदोंको सिद्ध करता है । अतएव वस्तुमें भेद कल्पना भी वास्तविक ही है, और इसी लिये नानाभेदरूपसे जीवादिक तत्वोंका या सम्यग्दर्शनादिकका अधिगम कराना छटे अनुयोग-विधानका युक्ति सिद्ध प्रयोजन समझना चाहिये। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग और उसके विषयभूत जीवादिक तत्वोंको संक्षेपसे जाननेके लिये उपायभत निर्देशादिक छह अनुयोगोंका वर्णन किया । जो विस्तारके साथ उनका स्वरूप जानना चाहते हैं, उनके लिये इनके सिवाय सदादिक आठ अनुयोगद्वार और भी बताये हैं । अतएव अब उन्हींको बतानेके लिये यहाँपर सूत्र कहते हैं सूत्र--सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ भाष्यम्--सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शनं, कालः, अन्तरं, भावः, अल्पबहुत्वमित्येतैश्च सद्भूतपदप्ररूपणादिभिरष्टाभिरनुयोगद्वारैः सर्वभावानां विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति । कथमितिचेदुच्यते-सत् सम्यग्दर्शनं किमस्ति नास्तीति। अस्तीत्युच्यते । कास्तीति चेदुच्यतेअजीवेषु तावन्नास्ति। जीवेषु तु भाज्यम् । तद्यथा-गतीन्द्रियकाययोगकषायवेदलेझ्यासम्यक्त्व ज्ञानदर्शनचारित्राहारोपयोगेषु त्रयोदशस्वनुयोद्वारेषु यथासंभवं सदूभूतप्ररूपणा कर्तव्या। संख्या-कियत्सम्यग्दर्शनं किं संख्येयमसंख्ययमनन्तामति, उच्यते,-असंख्येयानि सम्यग्दर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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