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उपसंहार । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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परमर्षियोंने संसार के विषयोंसे अतिक्रान्त अव्यय - कभी नष्ट न होनेवाला और अव्याबाध - बाधाओं - सम्पूर्ण आकुलताओंसे रहित, तथा सर्वोत्कृष्ट बताया है । यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है, कि लोकमें सुखका उपभोग कर्म सहित और शरीरयुक्त जीवोंके ही होता हुआ देखा जाता है । सिद्धजीव इन दोनों ही बातोंसे रहित हैं । वे शरीर से भी रहित हैं, और सम्पूर्ण - आठों कर्म भी उनके नष्ट हो चुके हैं । अतएव मुक्तात्माओं के सुखका उपभोग किस प्रकारसे हो सकता है ? इसीके उत्तर रूपमें कहते हैं कि - लोकमें सुख शब्द चार अर्थोंमें प्रयुक्त होता है । - विषय वेदनाका अभाव विपाक और मोक्ष । इनमें से विषयकी अपेक्षा इष्ट वस्तु के समागममें सुख शब्दका प्रयोग किया जाता है । यथा— - सुखो वन्हिः सुखो वायुः । अर्थात् शीतपीड़ित मनुष्य अग्निके मिलनेपर उसको सुखरूप मानता है, और कहता है कि सुख है - आनन्द आगया, इसी प्रकार गर्मी से जिसके प्रस्वेद - पसीना आगया है, वह जीव वायुको सुखरूप मानता है । कहीं पर दुःख - वेदना और उसके कारणोंके नष्ट होजानेपर अपनेको सुखी समझता है । इसके सिवाय यह बात तो सभी जानते और कहते हैं, कि इन्द्रियोंके विषयोंसे जन्य-वैषयिक सुख पुण्यकर्म के उदयसे प्राप्त हुआ करते हैं। चौथा सुख मोक्षमें है अथवा मोक्षरूप है, जो कि कर्म और क्लेशके क्षयसे उद्भूत - पैदा हुआ करता है, और इसीलिये जो अनुत्तम माना गया है, उस सुखसे बढ़कर और कोई भी सुख नहीं है - मोक्षका सुख सबसे उत्कृष्ट है । कोई कोई कहते हैं, कि निर्वाण-अवस्था सुस्वप्न के समान है । अथवा जिस प्रकार सोता हुआ मनुष्य बाह्य विषयोंसे वेखबर रहा करता है, उसी प्रकार मुक्त - जीव भी समझना चाहिये । किन्तु यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि सुसुप्ति - दशामें क्रियावत्ता और सुखानुशय-सुखोपभोग के अल्प बहुत्वकी अपेक्षा सिद्ध-अवस्थासे महान् अंतर है । सिद्ध निष्क्रिय हैं, और अल्प बहुत्व रहित सुखके स्वामी हैं । सुप्तजीवमें यह बात नहीं है । इसके सिवाय सुसुप्ति या निद्रा के कारण श्रमलमखेद मद और मदन --मैथुन - सेवन हैं । इन कारणोंसे निद्राको संभूति- उत्पत्ति हुआ करती है । मोहकर्मका उदय तथा दर्शनावरणकर्मका विपाक भी इसमें कारण है । किन्तु सिद्ध-अवस्थाका सुख इन कारणोंसे जन्य नहीं है । सिद्ध-अवस्था में जो सुख है, उसकी सदृशता रखनेवाला तीन लोक में भी कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, जिसकी उसको उपमा दी जा सके । अतएव सिद्धां के सुखको अनुपम कहा जाता है । हेतुवादके द्वारा जहाँपर सिद्धि की जाती है, उस प्रमाणका भी वह विषय नहीं है, और अनुमान तथा उपमान प्रमाणका भी वह सर्वथा अविषय है, इसलिये भी उसको अनुपम कहा जाता है । भगवान् अरहंत
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