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________________ ४७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ दशमोऽध्यायः देवने प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा उसको देखा है, इसलिये उन्हींके ज्ञानका वह विषय हो सकता है । अन्य विद्वान् उनके कहे अनुसार ही उसको ग्रहण किया करते हैं, और उसके अस्तित्वको स्वीकार करते हैं। क्योंकि वह छद्मस्थोंकी परीक्षाका विषय नहीं है। भाष्यम्-यस्त्विदानी सम्यद्गर्शनज्ञानचरणसम्पन्नो भिक्षुमोक्षाय घटमानः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तिः कर्मणां चातिगुरुत्वादकृतार्थएवोपरमति स सौधर्मादीनां सर्वार्थसिद्धान्तानां कल्पविमानविशेषाणामन्यतमे देवतयोपपद्यते । तत्र सुकृतकर्मफलमनुभूय स्थितिक्षयात्प्रच्युतो देशजातिकुलशीलविद्याविनयविभवविषयविस्तरविभूतियुक्तेषु मनुष्येषु प्रत्यायातिमवाप्य पुनः सम्यग्दर्शनादिविशुद्धबोधिमवाप्नोति । अनेन सुखपरम्परायुक्तेन कुशलाभ्यासानुबन्धक्रमेण परं त्रिर्जनित्वा सिध्यतीति ॥ अर्थ-वर्तमान शरीरसे ही मोक्ष प्राप्त करनेका जो क्रम है, और उसके लिये जो जो और जैसे जैसे कारणोंकी आवश्यकता है, उन सबका वर्णन ऊपर किया या चुका है। जो भव्य तद्भव मोक्षगामी हैं, और उसके अनुकूल काल संहनन आयु आदि सम्पूर्ण-कारण सामग्री जिनको प्राप्त है, वे उसी भवसे मोक्षको प्राप्त करलेते हैं। किन्तु जो आजकलके साधु हैं, वे अल्पशक्ति हैं-उनका बल और पराक्रम बहुत थोड़ा है, तथा उनके कर्मोंका भार भी अत्यंत गुरुतर हैएक ही भवमें निनका क्षय किया जा सके, ऐसे अल्पस्थिति अनुभाग आदिके धारक उनके कर्म नहीं हैं । अतएव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप सम्पत्तिसे युक्त और मोक्षके लिये प्रयत्नशील रहते हुए भी वे इसी भवसे कृतार्थ नहीं हो सकते । कृतकृत्यदशा-निर्वाण पदको वे प्राप्त नहीं कर सकते । क्योंकि उसी भवसे कर्म-भारको निःशेष करनेके लिये जिस शक्तिकी आवश्यकता है, काल संहनन और आयुके दोषसे वह उनमें नहीं पाई जाती । इस प्रकारके मुमुक्षु भिक्षु तद्भवमुक्त न होकर ही उपरामको प्राप्त हो जाया करते हैं, जिससे कि आयुके अन्तमें वे देव पर्यायको धारण किया करते हैं । सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्तके कल्प विमानों से किसी भी एक कल्पके विमानमें जाकर देव हुआ करते हैं। वहाँपर अपने संचित पुण्यफलको भोगकर आयु पूर्ण होनेपर वहाँसे च्युत होते हैं, और मनुष्य-पर्यायको धारण किया करते हैं। मनुष्य-गतिमें ऐसे मनुष्योंमेंही वे जन्म धारण किया करते हैं, जोकि देश जाति कुल शील विद्या विनय विभव और विषयोंके विस्तारसे तथा विभूतियोंसे युक्त हैं । जिन देशोंमें या जातियों अथवा कुलोंमें जन्म-ग्रहण करनेसे रत्नत्रय धारण करनेकी पात्रता उत्पन्न होती है, उन्हीं देश जाति या कुलोंमें ऐसे जीव जन्म-ग्रहण किया करते हैं। इसी प्रकार जो शील या विद्या आदि गुण निरवद्य और मोक्ष पुरुषार्थके साधनमें उपयोगी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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