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________________ ४६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [दशमोऽध्यायः प्रकार कर्मोंका संगम छूट जानेपर सिद्ध-जीवोंकी भी ऊर्ध्व-गति हुआ करती है । जिस प्रकार एरण्ड यन्त्रकी पेड़ामेंसे बन्धके छटते ही गमन किया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्ध का विच्छेद होनेपर सिद्ध-जीव भी गमन किया करते हैं । जिनोत्तम श्रीसर्वज्ञ भगवान् ने ऐसा कहा है, कि पुद्गल द्रव्य अधोगौरवधर्मा है, और जीव द्रव्य ऊर्ध्वगौरवधर्मा है । पुद्गलोंमें स्वभाव से ही ऐसा गुरुत्व पाया जाता है, कि जिसके कारण वे नीचेको ही गमन कर सकते या किया करते हैं, जीवोंका स्वभाव इसके प्रतिकूल है-वे स्वभावसे ही ऊपरको गमन करनेवाले हैं। शुद्ध अवस्थामें जीवोंका यह स्वभाव भी प्रकट हो जाता है, और अपना कार्य किया करता है। जिस प्रकार स्वभावसे ही मिट्टीका ढेला नीचेकी तरफ और वायु तिरछी-पूर्वादि दिशाओंकी तरफ और अग्नि उपरको गमन किया करती है, उसी प्रकार शुद्ध जीवोंकी भी ऊर्ध्व-गति स्वभावसे ही हुआ करती है । लोकमें ऊर्ध्व-गतिके विरुद्ध जीवोंकी गतिमें जो विकार नजर आता है, उसका कारण कर्म है । कर्मके प्रतिघातसे अथवा बुद्धिपूर्वक होनेवाले प्रयोगसे जीवोंकी विकृत-गति भी होसकती है । जीवोंकी कर्मके निमित्तसे जो गति हुआ करती है, वह ऊर्ध्व अधः और तिर्यक् सब तरहकी होसकती है, परन्तु जिनके कर्म सर्वथा क्षीण हो चुके हैं, और कर्मोके क्षीण होजानेसे जिनका उर्ध्व-गति-स्वभाव प्रकट हो गया है, ऐसे जीव नियमसे ऊपरको ही गमन किया करते हैं । जिस प्रकार द्रव्य कर्मके उत्पत्ति आरम्भ और विनाश एक साथ ही हुआ करते हैं। उसी प्रकार सिद्धजीवके भी गति मोक्ष और संसारका क्षय एक साथ ही हुआ करते हैं। जिस प्रकार प्रकाशकी उत्पत्ति और अन्धकारका विनाश लोकमें एक साथ होता हुआ दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार निर्वाणकी प्राप्ति और कर्मोका क्षय भी एकसाथ ही हुआ करते हैं । लोकके अन्तमें मूर्धा-शिरके स्थानपर एक प्राग्भारा नामकी पृथिवी व्यवस्थित है, जोकि तन्वी-पतली मनोज्ञ सुगन्धित पुण्य-पवित्र और स्वच्छ तथा अत्यन्त भास्वर-प्रकाशमान है । उसका विष्कम्भ मनुष्यलोककी बराबर ४५ लाख योजनका है, और श्वेत छत्रके समान शुभ है । उस पृथ्वीके भी ऊपर लोकके अन्तमें-तनुवातवलयके भी अन्तमें सिद्धपरमेष्ठी अवस्थित हैं । सिद्धभगवान् केवलज्ञान और केवलदर्शनके साथ साथ तादात्म्यसम्बन्धसे उपयुक्त हैं। सम्यक्त्व और सिद्धत्वमें अवस्थित हैं। तथा कारणका अभाव होजानेसे निष्क्रिय हैं। यदि किसीको यह शंका हो, कि जब जीवका , स्वभावही ऊर्ध्व-गमन करनेका है, और वह गुण सर्वथा प्रकट हो चुका है, तो शुद्धजीव ऊर्ध्वगमनही सदा क्यों नहीं करता रहता, तनुवातवलयके अंतमें ठहर क्यों जाता है, उससे ऊपर भी गमन क्यों करता हुआ चला नहीं जाता ? तो यह शंका ठीक नहीं है । क्योंकि वहाँपर धर्मास्तिकायका अभाव है । नीव और पुद्गलके गमनमें सहकारी-कारण वही है। और वह वहींतक है, जहाँपर सिद्ध-जीव जाकर अवस्थित हो जाते हैं । मुक्तात्माओंके सुखको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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