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________________ उपसंहार। समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४६७ . मार्ग भी प्रवृत्त होता है। पहले कर्मक्षय-निर्जराके कारण बताये जा चुके हैं। उन्हीं कारणोंके द्वारा पहलेके संचित कर्मोंका क्षपण करनेवाले जीवके सबसे पहले संसारके बीजरूप मोहनीय कर्मका पूर्णतया क्षय हुआ करता है । मोहनीयकर्मका सर्वथा अभाव होजानेपर अन्तराय ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन तीन कर्मोंका एक साथ ही क्षय हो जाता है। मोहनीयके अमावके बाद ही इन तीनोंका भी पूर्णतया अभाव होता है । जिस प्रकार गर्भसूचीके नष्ट होनेपर तालका भी विनाश होनाता है। उसी प्रकार मोहनीयकर्मका भी सर्वथा क्षय होनानेपर कर्मोंका अत्यन्त अभाव होजाता है । इस प्रकार चार घातिकर्मोको क्षीण करके अथाख्यातसंयमको प्राप्त हुआ जीव बीजरूप बन्धनसे निर्मुक्त होनेपर परमेश्वर-परम ऐश्वर्यको धारण करनेवाला स्नातक कहा जाता है । इन स्नातक भगवान्के चार अघातिकर्म अभी बाकी हैं, उनके फलोपभोगकी अभी अपेक्षा बाकी है। जिनको उन कर्मोंका फल भोगना ही मात्र शेष रह गया है, उनको शुद्ध बुद्ध निरामय सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिन और केवली कहा जाता है। क्योंकि मोहननित अशुद्धिसे वे सर्वथा रहित हैं, ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय होनानेसे उनका अज्ञानभाव सर्वथा नष्ट होगया है, उनको किसी भी प्रकारकी व्याधि नहीं होती, पदार्थमात्र और उनकी त्रिकालवर्ती सूक्ष्म स्थूल समस्त अवस्थाओंको वे हस्त-रेखाके समान प्रत्यक्ष और एकसाथ जानते तथा देखते हैं। सम्पूर्ण कर्मोंपर वे विजय प्राप्त कर चुके हैं, इसलिये उनको जिन कहते हैं, और वे परभाव और परसंयोगसे सर्वथा रहित होकर शुद्ध आत्मरूप ही रह गये हैं, इसलिये अथवा केवल ज्ञानादिके ही अधीश्वर हैं, इससे उनको केवली कहते हैं। इस स्नातक अवस्थाके अनन्तर शेष चार अघातिकर्मोंका क्षय होजानेपर उस शुद्धात्माकी ऊर्ध्व-गति होती है । इसीको निर्वाणप्राप्ति कहते हैं। जिसप्रकार अग्निमें ईधनका पड़ते रहना यदि बन्द हो जाय, और मौजूद ईंधन भी जलकर भस्म होजाय, तो विना उपादानके वह अग्नि निर्वाण-दशाको प्राप्त होजाती है, उसी प्रकार केवलीभगवान् भी कर्मरूप ईधनके जल जानेपर निर्वाणको प्राप्त होजाते हैं । निर्वाण होजानेपर उस जीवको फिर भव-धारण नहीं करना पड़ता।-पुनः संसारमें नहीं आना पड़ता। जिस प्रकार बीजके सर्वथा जलजानेपर किसीभी तरह अंकुर प्रकट नहीं हो सकता, उसी. प्रकार कर्मरूपी बीजके जलजानेपर संसाररूपी अंकुर भी उत्पन्न नहीं हुआ करता । जिस समय शेष अघातिकोका अत्यंत क्षय होता है, उसके उत्तरक्षणमें ही यह जीव लोकके अंततक ऊपरको गमन किया करता है, शुद्ध जीवके ऊर्ध्व-गमनमें कारण-पूर्वप्रयोग असङ्गता बन्धच्छेद और ऊर्ध्व-गौरव हैं । कुम्मारके चक्रमें एक बार घुमा देनेपर और वागमें एक बार छोड़ देनेपर भी पूर्वप्रयोगके द्वारा गति होती हुई देखी जाती है, उसी प्रकार सिद्ध होनेवाले जीवोंकी भी गति पूर्वप्रयोगके द्वारा हुआ करती है । मिट्टीके लेपका संगम-साथ छूट जानेपर तुम्बी जलके ऊपर आजाती है, ऐसा देखा जाता है । इसी.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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