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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथमोऽध्यायः इस प्रकारसे अनादि और सौदि जीव अजीव आदिक मोक्षपर्यन्त समस्त भावोंके तत्त्वका अधिगम प्राप्त करनेके लिये न्यासका उपयोग करना चाहिये ।
भावार्थ-प्रत्येक वस्तुका शब्द द्वारा व्यवहार चार प्रकारसे हुआ करता है, अतएव उस वस्तुका उस शब्द व्यवहारके द्वारा ज्ञान भी चार प्रकारसे हुआ करता है। इस जाननेके उपायको ही निक्षेप कहते हैं। उसके चार भेद हैं-नाम स्थापना द्रव्य और भाव ।
गुणकी अपेक्षा न करके केवल व्यवहारकी सिद्धि के लिये जो किसीकी संज्ञा रख दी जाती है, उसको नामनिक्षेप कहते हैं, जैसे कि किसी मूर्खका भी नाम विद्याधर रख दिया जाता है, अथवा माणिक और लाल रत्नके गुण न रहनेपर भी किसीका माणिकलाल नाम रख दिया जाता है । इत्यादि।
किसी वस्तुमें अन्य वस्तुके इस तरहसे आरोपण करनेको कि “ यह वही है" स्थापना निक्षेप कहते हैं, चाहे वह वस्तु जिसमें कि आरोपण किया गया है, साकार-जिस वस्तुका आरोपण किया गया है, उसके समान आकारको धारण करनेवाली हो या न हो । जैसे कि महावीर भगवान् के आकारवाली मूर्तिमें यह आरोपण करना, कि ये वे ही महावीर भगवान् हैं, कि जिन्होंने तीर्थकर प्रकृतिके उदयवश भव्यजीवोंके हितार्थ समवसरणमें मोक्षके मार्गका उपदेश दिया था, इसको साकारमें स्थापनानिक्षेप समझना चाहिये । और शतरंजके महरोंमें जो बादशाह बजीर हाथी घोड़ा आदिका आरोपण किया जाता है उसको अतदाकारमें स्थापनानिक्षेप कहना चाहिये।
नाम और स्थापना दोनों ही निक्षेपोंमें गुणकी अपेक्षा नहीं रखी जाती, फिर दोनोंमें क्या अन्तर है ? यह प्रश्न हो सकता है। सो उसका उत्तर इस प्रकार है, कि पहले तो नाम निक्षेपमें जिस प्रकार गुणकी अपेक्षाका सर्वथा अभाव है, उस प्रकार स्थापनानिक्षेपमें नहीं है। क्योंकि नाम रखनेमें किसी प्रकारका नियम नहीं है, किन्तु स्थापनाके लिये अनेक प्रकारके नियम बताये हैं। दुसरी बात यह है, कि नाममें आदरानुग्रह नहीं होता, परन्तु स्थापनामें वह होता है । मूर्तिमें जो पार्श्वनाथकी स्थापना की गई है, सो उस मूर्तिका भी खास पार्श्वनाथ भगवान्के समान ही आदर सत्कार किया जाता है।
किसी वस्तुकी आगे जो पर्याय होनेवाली है, उसको पहले ही उस पर्यायरूप कहना इसको द्रव्यनिक्षेपें कहते हैं । जैसे कि राजपुत्र अथवा युवराजको राजा कहना । क्योंकि यद्यपि वह वर्तमानमें राजा नहीं है, परन्तु भविष्यमें होनेवाला है, अतएव उसको वर्तमानमें राजा
१-वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा । २ पर्यायकी अपेक्षा । ३-अतगुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छाशवर्तनात् ।। ४--साकारे वा निराकारे काष्टादौ यन्निवेशनम् । सोयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ ५-आगामिगुणयोग्योऽर्थोद्रव्यन्यासस्य गोचरः ॥ ( तत्त्वार्थसार--अमृतचंद्रसूरि )
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