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सूत्र ५ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । हैं । जैसे कि देवताओंकी मूर्तिमें हुआ करता है, कि ये इन्द्र हैं, ये महादेव हैं, ये गणेश हैं, या ये विष्णु हैं, इत्यादि । द्रव्यजीव गुणपर्यायसे रहित होता है, सो यह अनादि पारिणामिकभावसे युक्त है, अतएव जीवको द्रव्यजीव केवल बुद्धिमें स्थापित करके ही कह सकते हैं। अथवा इस भंगको शन्य ही समझना चाहिये, क्योंकि जो पदार्थ अजीव होकर जीवरूप हो सके, वह द्रव्यनीव कहा जा सकता है, सो यह बात अनिष्ट है। जो औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक औदायिक और पारणामिक भावोंसे युक्त हैं और जिनका लक्षण उपयोग है, ऐसे जीवोंको भावजीव कहते हैं। वे दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त । सो इनका स्वरूप आगे चलकर लिखेंगे । जिस तरह यहाँपर जीवके ऊपर ये चारों निक्षेप घटित किये हैं, उसी प्रकार अजीवादिकके ऊपर भी घटित कर लेना चाहिये ।
इसके सिवाय नामद्रव्य स्थापनाद्रव्य द्रव्यद्रव्य और भावद्रव्य इस तरह प्रकारान्तरसे भी इनका व्यवहार होता है, सो इसको भी यहाँ घटित करके बताते हैं
किसी भी जीव या अजीवका “ द्रव्य" ऐसा संज्ञाकर्म करना नामद्रव्य कहा जाता है। काष्ठ पुस्त चित्रकर्म अक्ष निक्षेपादिमें “ये द्रव्य हैं" इस तरहसे आरोपण करनेको स्थापनाद्रव्य कहते हैं। जैसे कि देवताओंकी मूर्तिमें यह इन्द्र है, यह रुद्र है, यह गणेश है, यह विष्णु है, ऐसा आरोपण हुआ करता है । धर्म अधर्म आकाश आदिमेसे केवल बुद्धिके द्वारा गण पर्याय रहित किसी भी द्रव्यको द्रव्यद्रव्य कहते हैं। कुछ आचार्योंका इस विषयमें ऐसा कहना है, कि द्रव्यनिक्षेपकी अपेक्षा द्रव्य केवल पुद्गल द्रव्यको ही समझना चाहिये । सो इस विषयका “ अणव स्कन्धाश्च" और " संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते” इन दो सूत्रोंका आगे चलकर हम वर्णन करेंगे, उससे खुलासा हो जायगा । प्राप्तिरूप लक्षगसे युक्त और गुण पर्याय सहित धर्मादिक द्रव्योंको भावद्रव्य कहते हैं । आगमकी अपेक्षा से द्रव्यके स्वरूपका निरूपण करनेवाले प्राभृत-शास्त्रके ज्ञाता जीवको जो द्रव्य कहते हैं, सो यहाँपर द्रव्य शब्दसे भव्य-प्राप्य अर्थ समझना चाहिये । क्योंकि व्याकरणमें भव्य अर्थमें ही द्रव्य शब्दका निपात होता है । भन्य • शब्दका अर्थ भी प्राप्य है । क्योंकि प्राप्ति अर्थवाली आत्मनेपदी भू धातुसे यह शब्द बनता है। अर्थात् जो प्राप्त किये जायें, अथवा जो प्राप्त हों उनको द्रव्ये कहते हैं।
१-कर्मोंके उपशान्त हो जानेपर जो भाव होते हैं, उनको औपशमिक, क्षयसे होनेवालोंको क्षायिक, सर्वघातीके क्षय-विना फल दिये निर्जरा और उपशम होनेपर तथा साथमें देशघातीका उदय भी होनेपर होनेवाले भावोंको क्षायोपशामिक, एवं कर्मके उदयसे होनेवाले भावोंको औदयिक कहते हैं । किंतु जिनमें कर्मकी कुछ भी अपेक्षा नहीं है, ऐसे स्वाभाविक जीवत्व आदि भावोंको पारणामिकभाव कहते हैं।
२--पाँचवें अध्यायके २५ और २६ नंबरके से दोनों सूत्र हैं। ३-भवितुं योग्यो भव्यः, अर्थात् जो होनेके योग्य हो, उस को भव्य कहते हैं। ४-व्याकरणकी संज्ञा विशेष है । विना प्रकृति प्रत्ययकी अपेक्षा लिये किसी अर्थ विशेषमें शब्दके निष्पन्न होनेको कहते हैं। ५-द्रवितुं योग्यं द्रव्यम् , अथवा द्रूयते इवति द्रविध्यति अदुइवत् इति द्रव्यम् ।
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