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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम _ [दशमोऽध्यायः सम्पूर्ण मोहनीयकर्मका सामस्त्येन अभाव हो जाता है । मोहनीयकर्मका सर्वथा अभाव होनानेपर उस जीवको छद्मस्थवीतराग अवस्था प्राप्त हुआ करती है, जिसके कि प्राप्त होनेपर उस जीवके एक अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों ही घातिकर्म पूर्णरूपसे एक साथ नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार चार कर्मोंके नष्ट होजानेपर यह जीव संसारके बीजरूप कर्म-बन्धसे सर्वथा रहित होजाता है। किंतु जिसका फल भोगना बाकी है,ऐसे बन्धन-अघाति कर्मोंके मोक्ष-छूटनेकी अपेक्षा रखनेवाला और यथाख्यात संयमसे युक्त वह जीव स्नातक कहा जाता है। उसको जिन केवली सर्वज्ञ सर्वदर्शी शुद्ध बुद्ध और कृतकृत्य कहते हैं। इसके अनन्तर इन फलबन्धनरूप चार अघातिकर्म-वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्कका भी क्षय हो जाता है, जिससे कि वह इनसे भी मुक्त हो जाता है । जिससे कि पूर्वके संचित कर्मरूपी ईंधनके दग्ध हो जानेपर जिस प्रकार बिना उपादान-ईधन रहित अग्नि स्वयं शांत हो जाती है-बुझ जाती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी पूर्वके उपात्त-गृहीत भवका वियोग हो जानेपर-संसारके छूट जानेपर तथा नवीन भवके धारण करनेका हेतु न रहनेके कारण उत्तर भव प्राप्त न होनेसे शांत हो जाता है। संसार-सुखका अतिक्रमण-उल्लंघन करके आत्यंतिक-अनन्त, ऐकान्तिक-जिसमें रंचमात्र भी दुःखका संपर्क नहीं पाया जाता, अथवा जिसका एक भी अंश असुखरूप नहीं है, तथा निरुपम-जिसकी किसी भी संसारिक वस्तुसे तुलना नहीं की जा सकती, निरतिशय-हीनाधिकलाके धारण करनेसे रहित और नित्य-सदा अपरिणामी निर्वाण-सुखको प्राप्त हुआ करता है । भावार्थ--यहाँपर बारहवें गुणस्थानसे लेकर निर्वाण प्राप्तितककी अवस्थाका संक्षेपसे कम बताया है। ऋद्धियोंका वर्णन करके इस क्रमके वर्णन करनेका हेतु यही है, कि जिससे मुमुक्षुओंको यह मालूम हो जाय, कि इस मोक्ष-मार्गपर चलनेसे ऐसी ऐसी ऋद्धियाँ प्राप्त हुआ करती हैं, फिर भी वे मुमुक्षुओंके लिये हेय ही हैं। ऋद्धियोंकी तृष्णा भी मोह ही है, और मोहका जबतक पूर्णतया अभाव नहीं होता, तबतक वह जीव निर्वाणसे बहुत दूर है। क्योंकि निर्वाणअवस्था मोहके सर्वथा नष्ट होजानेपर घातित्रयका घातकर अघातिचतुष्टयके भी नष्ट होजानेपर ही प्राप्त हुआ करती है। __अब इस ग्रन्थमें जिस मोक्षमार्गका वर्णन किया गया है, उसीका प्रकारान्तरसे उपसंहार करते हुए संक्षेपमें ३२ पद्योंके द्वारा निदर्शन करते हैं। एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशम् । निरास्त्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ॥१॥ पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कात्स्ये न मोहनीयं प्रहीयते ॥२॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् ।। प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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