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________________ सूत्र ७ । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४६३ है, उसके द्वारा इस ऋद्धिका धारक इन विषयोंका दूरसे ही ग्रहण कर सकता है । युगपत्एक साथ अनेक विषयों के परिज्ञान - जान लेने आदिकी शक्ति विशेषको संभिन्नज्ञानऋद्धि कहते । इसी प्रकार मानसज्ञानकी ऋद्धियाँ भी प्राप्त हुआ करती हैं । यथा । - कोष्ठबुद्धित्व बीजबुद्धित्व और पद प्रकरण उद्देश अध्याय प्राभृत वस्तु पूर्व और अङ्गकी अनुगामिता ऋजुम• तित्व विपुलमतित्व परचित्तज्ञान ( दूसरे के मनका अभिप्राय जान लेना ) अभिलषित पदार्थकी प्राप्ति होना, और अनिष्ट पदार्थकी प्राप्ति न होना, इत्यादि अनेक ऋद्धियाँ भी प्राप्त हुआ करती हैं । इसी प्रकार वाचिकऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । यथा - क्षीरास्त्रवित्व, मध्वास्त्रवित्व, वादित्व, सर्वरुतज्ञत्व और सर्वसत्वावबोधन इत्यादि । इनका तात्पर्य यह है, कि जिसके सामर्थ्य से सदा ऐसे वचन निकलें, जोकि सुननेवालेको दूधके समान मालूम पड़ें, उसको क्षीरास्रवी और यदि ऐसा जान पड़े मानों शहद झड़ रहा है, तो मध्वा. ऋद्धि कहते हैं । हर तरह के वादियोंको शास्त्रार्थमें परास्त करनेकी सामर्थ्य विशेषका नामवादित्वऋद्धि है । प्राणिमात्र के शब्दों को समझ सकनेकी शक्ति विशेषका नाम सर्वरुतज्ञत्व तथा सभी जीवोंको बोध कराने की - समझाने की जिसमें सामर्थ्य पाई जाय, उसको सर्वसवावबोधन कहते हैं । इसी प्रकार और भी वाचिकऋद्धियाँ समझनी चाहिये, जोकि वचनकी शक्तिको प्रकट करनेवाली हैं । तथा इनके सिवाय विद्याधरत्व, आशीविषत्व, भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षरें इस तरह दोनों ही तरह की चतुर्दशपूर्वरत्व भी ऋद्धियाँ प्राप्त हुआ करती हैं ! मधुर भाष्यम् - ततोऽस्य निस्तृष्णत्वात्तेष्वनभिष्वक्तस्य मोहक्षपकपरिणामावस्थस्याष्टाविंशतिविधं मोहनीयं निरवशेषतः प्रहीयते। ततश्छद्मस्थवीतरागत्वं प्राप्तस्यान्तर्मुहूर्तेन ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणि युगपदशेषतः प्रहीयन्ते । ततः संसारबीजबन्धनिर्मुक्तः फलबन्धन मोक्षापेक्षो यथाख्यातसंयतो जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी शुद्धो बुद्धः कृतकृत्यः स्नातको भवति । ततो वेदनीयनामगोत्रायुष्कक्षयात्फलबन्धननिर्मुक्तो निर्दग्धपूर्वोपात्तेन्धनो निरुपादान इवाग्निः पूर्वोपात्तभववियोगाद्धेत्वभावाच्चोतरस्याप्रादुर्भावाच्छान्तः संसारसुखमतीत्यात्यन्तिकमैकान्तिकं निरुपमं निरतिशयं नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति ॥ अर्थ - उपर्युक्त ऋद्धियों के प्राप्त होजानेपर भी तृष्णा रहित होनेके कारण उन ऋद्धियोंमें जो आसक्ति या मूर्छासे सर्वथा रहित रहता है, तथा मोहनीय कर्मका क्षपण करनेवाले परिणामोंसे जो युक्त रहता है, उस जीवके पूर्वोक्त मोहनीयकर्मके अट्ठाईसों भेदरूप कर्मोंका - १ - यहाँ पर इन ऋद्धियों का अर्थ वचनपरक किया गया है । किन्तु दिगम्बर - सम्प्रदाय में इनका अर्थ इस प्रकारका है, कि जिसके सामर्थ्य से शाकपिंडका भी भोजन दुग्धरूप परिणमन करे - दूध के समान गुण दिखावे, उसको क्षीरस्रावऋद्धि कहते हैं । इसी प्रकार सर्पिःस्रावी अमृतस्रावी मधुस्रावी आदिका भी अर्थ समझना चाहिये । २ केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदों में एकघाटि एक चौदह पूर्व ज्ञानमें एकाध अक्षरप्रमाण ज्ञान कम हो, तो कहा जाता है । Jain Education International अडीका भाग देनेसे अक्षरका प्रमाण निकलता है। भिन्नाक्षर और एक भी अक्षर कम न हो, तो अभिन्नाक्षर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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