SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम [ दशमोऽध्यायः 1 अणिमा शब्दका अर्थ अणुत्व है अर्थात् छोटापन । इस ऋद्धिके द्वारा अपने शरीरको इतना छोटा बनाया जा सकता है। कि वह कमल - तन्तुके छिद्र में भी प्रवेश करके स्थित हो सकता है | लघिमा शब्दका अर्थ लघुत्व है अर्थात् हलकापन । इसके सामर्थ्य से शरीरको वायुसे भी हलका बनाया जा सकता है, महिमा शब्दका अर्थ महत्व - अर्थात् भारीपन अथवा बड़ापन है । जिसके सामर्थ्य से शरीरको मेरु पर्वत से भी बड़ा किया जा सके, उसको महिमा - ऋद्धि कहते हैं। प्राप्ति नाम स्पर्श संयोगका है, जिसके कि द्वारा दूरवर्ती पदार्थका भी स्पर्श किया जा सकता है । इस ऋद्धिके बलसे भूमिपर बैठा हुआ ही साधु अपनी अंगुली के अग्रभागसे मेरुपर्वतकी शिखरका अथवा सूर्य-बिम्बका स्पर्श कर सकता है । इच्छानुसार चाहे जिस तरह भूमि या जलपर चलने की सामर्थ्य विशेषको प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं । इसके सामर्थ्य से पृथिवीपर जलकी तरह चल सकता है, जिस प्रकार जलमें मनुष्य तैरता है, उसी प्रकार पृथिवीपर भी तैर सकता है और निमज्जनोन्मज्जन भी कर सकता है । जिस प्रकार जलमें डुबकी लगाते हैं, या उतराने लगते. हैं, उसी प्रकार पृथिवीपर भी जलकीसी समस्त क्रियाएं इस ऋद्धिके सामर्थ्य से की जा सकती । तथा जलमें पृथिवी चेष्टा की जा सकती है -- जिस प्रकार पृथिवीपर पैरोंसे डग भरते हुए चलते हैं, उसी प्रकार इसके निमित्तसे जलमें भी चल सकते हैं। अग्निकी शिखा - ज्वाला धूम नीहार - तुषार और अवश्याय मेघ जलधारा मकड़ीका तन्तु सूर्य आदि ज्योतिष्क विमानोंकी किरणें तथा वायु आदिमें से किसी भी वस्तुका अवलम्बन लेकर आकाशमें चलनेकी सामर्थ्यको जंघाचारऋद्धि कहते हैं । आकाशमें पृथिवीके समान चलने की सामर्थ्यको आकाशगतिचारणऋद्धि कहते हैं । इसके निमित्तसे मुनिजन भी जिस प्रकार आकाशमें पक्षी उड़ा करते हैं, और कभी ऊपर चढ़ते कभी नीचे की तरफ उतरते हैं, उसी प्रकार विना किसी प्रकारके अवलम्बनके आकाशर्मे गमनागमन आदि क्रियाएं कर सकते हैं । जिस प्रकार आकाशमें गमन करते हैं, उसी प्रकार विना किसी तरह के प्रतिबन्ध के पर्वत के बीच में होकर भी गमन करने की सामर्थ्य जिससे प्रकट हो जाय उसको अप्रतिघातीऋद्धि कहते हैं । अदृश्य हो जाने की शक्ति जिससे कि चर्मचक्षुओंके द्वारा किसीको दिखाई न पड़े ऐसी सामर्थ्य जिससे प्रकट हो उसको अन्तर्धानऋद्धि कहते हैं । नाना प्रकारके अवलम्बनभेदके अनुसार अनेक तरहके रूप धारण करने की सामर्थ्य विशेषको कामरूपिताऋद्धि कहते हैं । इसके निमित्तसे भिन्न भिन्न समयों में भी अनेक रूप रक्खे जा सकते हैं, और एक कालमें एक साथ भी नानारूप धारण किये जा सकते हैं । जिस प्रकार तैजस पुतलाका निर्गमन होता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये । दूर से ही इन्द्रियों के विषयों का स्पर्शन आस्वादन घ्राण दर्शन और श्रवण कर सकने की सामर्थ्य विशेषको दूरभावीऋद्धि कहते हैं। क्योंकि मतिज्ञानावरणकर्मके विशिष्ट क्षयोपशम होजानेसे मतिज्ञानकी विशुद्धिमें जो विशेषता उत्पन्न होती ४६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy