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________________ सूत्र ७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४६ १ आर्त्तध्यान और रौद्रध्यानको सर्वथा नष्ट कर दिया है, और धर्मध्यानपर भी विजय प्राप्त करके समाधिके बलको सिद्ध कर लिया है । वह जीव पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्क इन आदिके दो शुक्लध्यानों में से किसी भी एकमें स्थित रहकर नाना प्रकार के ऋद्धि विशेषोंको प्राप्त हुआ करता है। भावार्थ — ग्रन्थके अन्तमें उक्त कथनका उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं, कि जो भव्य इस ग्रन्थमें बताये गये मोक्ष - मार्गका अभ्यास करता है - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र और तपका पालन करते हुए कर्मोंकी उत्तरोत्तर अधिकाधिक निर्जरा करते हुए विशुद्धि के उत्तरोत्तर स्थानोंको पाते हुए धर्मध्यान और समाधिको सिद्ध कर शुक्लध्यानके पहले दो भेदोंको धारण करता है, वह जबतक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तबतक अनेक ऋद्धियोंका पात्र बन जाता है। वे ऋद्धियाँ कौन कौन सी हैं, और उनका क्या स्वरूप है, सो स्वयं भाष्यकार आगे बताते हैं । - - भाष्यम् - आमशषधित्वं विप्रुडौषधित्वं सर्वोषधित्वं शापानुग्रहसामर्थ्यजननीमभिव्याहारसिद्धिमीशित्वं वशित्वमवधिज्ञानं शारीरविकरणाङ्गप्राप्तितामणिमानं लघिमानं महिमानमणुत्वम् अणिमा विसच्छिद्रमपि प्रविश्यासीतां । लघुत्वं नाम लघिमा वायोरपि लघुतरः स्यात् । महत्त्वं महिमा मेरोरपि महत्तरं शरीरं विकुर्वित । प्राप्तिर्भूमिष्ठोऽङ्गुल्यग्रेण मेरुशिखरभास्करादीनपि स्पृशेत् । प्राकाम्यमप्सु भूमाविव गच्छेत् भूमावप्स्यिव निमज्जेदुन्मज्जेच्च । जङ्घाचारणत्वं येनाग्निशिखा धूमनीहारावश्यायमेघवारिधारा मर्कटतन्तुज्योतिष्कर स्मिवायू. नामन्यतममप्युदाय वियति गच्छेत् । वियद्वतिचारणत्वं येन वियति भूमाविव गच्छेत् शकुनिवच्च प्रडीनावडीनगमनानि कुर्यात् । अप्रतिघातित्वं पर्वतमध्येन वियतीव गच्छेत् । अन्तर्धानमहइयो भवेत् । कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि कुर्यात् तेजोनिसर्गसामर्थ्यमित्येतदादि I इति इन्द्रियेषु मतिज्ञानविशुद्धिविशेषाद्दूरत्स्पार्शनास्वादन घ्राणदर्शनश्रवणानि विषयाणां कुर्यात् । संभिन्नज्ञानत्वं युगपदनेकविषयपरिज्ञान मित्येतदादि । मानसं कोष्ठबुद्धित्वं बीजबुद्धित्वं पदप्रकरणोद्देशाध्याय ॥ भृतवस्तुपूर्वाङ्गानुसारित्वमृजुमतित्वं विपुलमतित्वं परचित्तज्ञानमभिलषितार्थप्राप्तिमनिष्टानवाप्तीत्येतदादि । वाचिकं क्षीरस्रवित्वं मध्वास्त्रवित्वं वादित्वं सर्वरुतज्ञत्वं सर्वसत्त्वावबोधनमित्येतदादि । तथा विद्याधरत्वमाशीविषत्वं भिन्नाभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वरत्वमिति ॥ 91 - अर्थ - आमशैषिधित्व, विडौषधित्व, सर्वैषधित्व, शाप और अनुग्रहकी सामर्थ्य उत्पन्न करनेवाली वचनसिद्धि, ईशित्व, वारीत्व, अवधिज्ञान, शारीरविकरण, अङ्गप्राप्तिता, अणिमा, लघिमा, और महिमा । ये सब ऋद्धियाँ हैं, जिनको कि उक्त मोक्ष - मार्गका साधक प्राप्त हुआ करता है । १ सूत्रकारने ऋद्धियों का वर्णन नहीं किया है । क्योंकि मोक्षकी सिद्धिमें उनका कोई खास सम्बन्ध आवश्यक नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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