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________________ सूत्र ७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । चतुर्विंशत्यादयो यावदेक इति संख्येयगुणाः । विपरीत हा निर्यथा । सर्वस्तोकाः अनन्तगुणहानिसिद्धाः असंख्येयगुणहानिसिद्धा अनन्तगुणाः संख्ये यगुणहानिसिद्धाः संख्येयगुणा इति ॥ ४५९ अर्थ —संख्या अनुयोगकी अपेक्षा से सिद्धों का अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना चाहिये, कि सिद्धजीवों में सबसे अल्पप्रमाण उनका समझना चाहिये, जोकि एक्सौ आठकी संख्या में सिद्ध हुए हैं । इसके अनन्तर विपरीत क्रमसे पचास तक अनन्तगुणा अनन्तगुणा प्रमाण समझना चाहिये, अर्थात् एकसौ आठ की संख्या में सिद्ध होनेवालों के प्रमाणसे अनन्तगुणा प्रमाण एक्सौ सातकी संख्या में सिद्ध होनेवालों का है, और एक्सौ सातकी संख्या में सिद्ध होनेवालों के प्रमाणसे. अनन्तगुणा प्रमाण एकसौ छहको संख्या में सिद्ध होनेवालोंका है । तथा एकसौ छहकी संख्या में सिद्ध होनेवालोंके प्रमाणसे अनन्तगुणा प्रमाण एक्सौ पाँचकी संख्या में सिद्ध होनेवालोंका है । इसी क्रमसे पचासकी संख्यामें सिद्ध होनेवालों तक अनन्तगुणा अनन्तगुणा प्रमाण समझना चाहिये । पचाससे. आगे पच्चीस तक असंख्यात गुणा असंख्यातगुणा प्रमाण है। अर्थात् पचासको संख्या में सिद्ध होनेवालों की अपेक्षा उनंचासकी संख्या में सिद्ध होनेवाले असंख्यातगुणे हैं । उनंचासकी संख्या से सिद्धों की अपेक्षा अड़तालीसकी संख्या में सिद्ध होनेवाले असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार विपरीत क्रम से २५ तककी संख्यासे सिद्ध होनेवालोंका प्रमाण उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा माना है । इससे आगे चौबीस से लेकर एक तककी संख्या में सिद्ध होनेवालोंका प्रमाण विपरीत क्रमसे उत्तरोत्तर संख्यातगुणा संख्यातगुणा है । यह उत्तरोत्तर बहुत्वको बतानेवाला क्रम है । हानिको बतानेवाला क्रम इससे विपरीत हुआ करता है । यथा । - अनन्त गुणहानिसे सिद्ध होनेवालों का प्रमाण सबसे अल्प है, और उससे अनन्तगुणा प्रमाण असंख्यात गुणहानिसे सिद्ध होनेवालों का है । तथा उससे संख्यातगुणा प्रमाण संख्यात गुणहानिते सिद्ध होनेवालोंका है । भाष्यम्-एवं निसर्गाधिमयोरन्यतरजं तत्त्वार्थश्रद्धानात्मकं शङ्काद्यतिचारवियुक्तं प्रशमसंवेगनिवेदानुकम्पास्तिक्या भिव्यक्तिलक्षणं विशुद्धं सम्यग्दर्शनमवाप्य सम्यग्दर्शनो पलम्भाद्विशुद्धं च ज्ञानमधिगम्य निक्षेप प्रमाणनयनिर्देशसत्संख्यादिभिरभ्युपायैर्जीवादीनां तत्त्वानां पारिणामिकौदयि कौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकानां भावानां स्वतत्त्वं विदित्वादिमत्पारिणामिकौदयिकानां च भावानामुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलयतत्त्वज्ञो विरक्तोनिस्तृष्णस्त्रिगुप्तः पञ्चसमितो दशलक्षण धर्मानुष्ठानात्फलदर्शनाच्च निर्वाणप्राप्तियतनयाभिवर्धितश्रद्धासंवेगो भावनाभिर्भावितात्मानुप्रेक्षाभिः स्थिरीकृतात्मानभिष्वङ्गः संवृत्तत्त्वान्निरा 'स्स्रवत्वाद्विरक्तत्वान्निस्तृष्णत्वाच्च व्यपगताभिनवकर्मापचयः परीषहजयाद्वाह्याभ्यन्तरतपोनुष्ठादनुभावतश्च सम्यग्दृष्टि विरतादीनां च जिनपर्यन्तानां परिणामाध्यवसायविशुद्धिस्थानान्तराणामसंख्येय गुणोत्कर्षप्राप्त्या पूर्वोपचितकर्म निर्जरयन सामायिकादीनां च सूक्ष्मसम्परायान्तानां संयमविशुद्धिस्थानानामुत्तरोत्तरोपलम्भात्पुलाकादीनां च निर्ग्रन्थानां संयमानुपालनविशुद्धिस्थानविशेषाणामुत्तरोत्तरप्रतिपत्त्या घटमानोऽत्यन्तप्रहीणार्तरौद्रध्यानो धर्मध्यान विजयादवाप्तसमाधिबलः शुक्लध्यानयोश्च पृथक्त्वैकत्ववितर्कयोरन्यतरस्मिन्वर्तमानो नानाविधानृद्धिविशेषान्प्राप्नोति । तद्यथा । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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