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सूत्र ७ । ]
संभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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जाय,
हैं। यदि इस से भी पूर्वकी - परम्परासे मनुष्यगति से भी एक भव पूर्वकी अपेक्षा विचार किया तो चारों ही गतिसे सिद्धि कही जा सकती है । क्योंकि जिस मनुष्यपर्यायसे जवि सिद्धि प्राप्त करता है, उस मनुष्यपर्यायको चारों ही गतिसे आया हुआ जीव धारण कर सकता है ।
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लिङ्गके तीन भेद हैं-स्त्रीलिङ्ग पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयनयकी अपेक्षासे वेदरहित - अलिङ्गकी सिद्धि हुआ करती है - किसी भी लिङ्गसे सिद्धि नहीं होती । पूर्वभावप्रज्ञापनीयमें भी दो भेद हैं । - अनन्तरपश्चात् कृतिक और परम्परपश्चात्कृतिकै। दोनों ही अपेक्षाओंमें तीनों लिङ्गों से सिद्धि हुआ करती है ।
भावार्थ — सिद्ध अवस्थामें कोई भी लिङ्ग नहीं रहता, अतएव वर्तमानकी अपेक्षा अवेदसे सिद्धि कही जा सकती है । किन्तु पूर्वभावकी अपेक्षा से दो प्रकारसे विचार किया जा सकता है। एक तो अव्यवहित पूर्वपर्याय के लिङ्गकी अपेक्षा और दूसरा उससे भी पूर्वपर्याय के निकी अपेक्षा । इन दोनों ही पर्यायोंमें तीनों लिङ्ग पाये जा सकते हैं ।
लिङ्गके विषयमें दूसरे प्रकारसे भी भेद बताये हैं । वे भी तीन हैं । - द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्ग और अलिङ्ग । इनमें से प्रत्युत्पन्नभावकी अपेक्षा अलिङ्ग ही सिद्धिको प्राप्त हुआ करता है । पूर्वभावकी अपेक्षा भावलिङ्गकी अपेक्षा स्वलिङ्गसे ही सिद्धि होती है, द्रव्यलिङ्ग-मेंतीन प्रकार हैं । - स्वलिङ्ग अन्यलिङ्ग और गृहिलिङ्ग । इनकी अपेक्षासे यथायोग्य समझ लेना चाहिये । किन्तु सभी भावलिङ्गको प्राप्त करके ही सिद्धिको प्राप्त हुआ करते हैं ।
भावार्थ — अन्तरङ्ग परिणामोंमें निर्ग्रन्थ जिनलिङ्ग होना ही चाहिये । बाह्यमें स्वलिङ्ग अन्यलिङ्ग अथवा गृहिलिङ्गमेंसे यथासम्भव कोई भी हो सकता है । यहाँपर लिङ्ग शब्दका अर्थ वेश अथवा मुद्रा समझना चाहिये । यदि लिङ्ग शब्दका अर्थ वेद - स्त्रीलिङ्ग पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग किया जाय, तो तीनों ही लिङ्गसे निर्वाण हो सकता है ।
भाष्यम्-तीर्थम् - सन्ति तीर्थकर सिद्धाः तीर्थकरतीर्थे नो तीर्थकरसिद्धाः तीर्थकर - तीर्थे तीर्थंकरसिद्धाः तीर्थकरतीर्थे । एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि ।
चरित्र- प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य नोचारित्री नोऽचारित्री सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयो द्विविधः अनन्तरपश्चात्कृतिकञ्च परम्परपश्चात्कृतिकश्च । अनन्तर पश्चात्कृतिकस्य यथाख्यातसंयतः सिध्यति । परम्परपश्चात्कृतिकस्य व्यञ्जितेऽव्यञ्जिते च । अव्यञ्जिते त्रिचारित्रपश्चात्कृतश्चतुञ्चारित्रपश्चात्कृतः पञ्च चारित्रपश्चात्कृतश्च । व्यञ्जिते सामायिक सूक्ष्मसौपरायिकयथारण्यात पश्चात्कृत सिद्धाः छेदोपस्थाप्यसूक्ष्म संपराययथारव्यातपञ्चात्कृत सिद्धाः सामयिकच्छेदोपस्थाप्यसूक्ष्म सम्पराययथाख्यातपश्चात्कृत सिद्धाः छेदोपस्थाप्यपरिहार
१ - इन शब्दों का अर्थ गतिअनुयोग में जैसा किया गया है, उसी प्रकार समझना चाहिये । २ - दिगम्बरसम्प्रदाय में द्रव्यतः पुल्लिङ्गको ही मोक्ष माना है ।
३---दिगम्बर-सम्प्रदायमें भावलिङ्गकी अपेक्षा तीनों लिहू से और द्रव्यलिङ्गकी अपेक्षा केवल पुल्लिङ्गसे ही मोक्ष माना है । बाह्य-वेशकी अपेक्षा भी केवल निर्ग्रन्थ दिगम्बर- अचेल अवस्था से ही मोक्ष मानी है ।
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