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________________ ४४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ दशमोऽध्यायः भावार्थ-संहरण शब्दका अर्थ स्पष्ट है । कोई देवादिक किसी मुनिको हरकर क्षेत्रान्तरमें लेजाय, तो उसको संहरण कहते हैं । संहरणके द्वारा जिस क्षेत्रको मुनि प्राप्त होगा वहाँपर अमुक ही काल होगा, ऐसा नियम नहीं बन सकता । सुषमसुषमा या सुषमा अथवा सुषमदुःषमाकाल जहाँपर सदा प्रवृत्त रहा करता है, ऐसे भागभूमिके क्षेत्रमें भी संहरणके द्वारा प्राप्ति हो सकती है, और वहींसे उसी समयमें निर्वाण-पद भी प्राप्त हो सकता है । अतएव संहरणकी अपेक्षा सभी कालमें सिद्धि कही जासकती है। जन्मकी अपेक्षा जो विशेषता है, वह ऊपर लिखी गई है। भाष्यम्-गतिः।-प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सिद्धिगत्यां सिध्यति । शेषास्तु नया द्विविधाः।-अनन्तरपश्चात्कृतगतिकश्च एकान्तरपश्चात्कृतगतिकश्च अनन्तरपश्चात्कृतगतिकस्य मनुष्यगत्यां सिध्यति । एकान्तरपश्चात्कृतगतिकस्याविशेषेण सर्वगतिभ्यः सिध्यति । लिङ्गं-स्त्रीपुं नपुंसकानि । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्यावेदः सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्यानन्तरपश्चात्कृतगतिकस्य परम्परपश्चात्कृतगतिकस्य च त्रिभ्यो-लिङ्गेभ्यः सिध्यति । लिङ्गे-पुनरन्यो विकल्प उच्यते ।-द्रव्यलिङ्गंभावलिङ्गमलिङ्गमिति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञायनीयस्यालिङ्गः सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य भावलिङ्गं प्रति स्वलिङ्गे सिध्यति । द्रव्यलिङ्ग त्रिविधं स्वलिङ्गमन्यलिङ्गं गृहिलिङ्गमिति तत्प्रति भाज्यम् सर्वस्तु भावलिङ्गं प्राप्तः सिध्यति॥ ___ अर्थ-गतिका अर्थ ऊपर बता चुके हैं। भवधारण अथवा पर्यायविशेषको गति कहते हैं । इसके सामान्यतया चार भेद हैं, जोकि पहले कहे जा चुके हैं। इसकी अपेक्षासे भी सिद्धजीवोंकी विशेषताका वर्णन किया जा सकता है। प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयकी अपेक्षा सिद्धिगतिसे ही सिद्धि होती है। पूर्वभावप्रज्ञापनीयमें भी दो प्रकार हैं, अनन्तरपश्चात्कृतिक और एकान्तरपश्चात्कृतिक । सिद्ध-अवस्था प्राप्त होनेसे अव्यवाहित पूर्वक्षणमें जो गति हो उसको अनन्तरपश्चात् कहते हैं, और उससे भी पूर्वमें जो गति हो, उसको एकान्तरपश्चात् शब्दसे कहा जाता है। अनन्तरपश्चात् गतिकी अपेक्षासे यदि विचार किया जाय, तो मनुष्यगतिसे ही सिद्धि होती है, और एकान्तरपश्चाद्गतिकी अपेक्षासे यदि देखा जाय, तो सामान्यतया सभी गतियोंसे सिद्धि हो सकती है। भावार्थ-वर्तमान भाव की अपेक्षा सिद्ध-जीव सिद्धगतिमें ही रहते हैं, अतएव उनको अन्य किसी भी गतिसे सिद्ध नहीं कहा जा सकता। पूर्वभावकी अपेक्षा यदि ली जाय, तो अनन्तरगतिकी अपेक्षा उन्हें मनुष्यभवसे सिद्ध कहा जा सकता है । क्योंकि जितने भी सिद्ध हुए हैं, या होंगे, अथवा हो सकते हैं, वे सब मनुष्यगतिके अनन्तर ही हुए हैं, या होंगे, अथवा हो सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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