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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [दशमोऽध्यायः भाष्यम्-अत्राह-उक्त मोहक्षयाज्ज्ञानर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलमिति। अथ मोहनीयादीनां क्षयः कथं भवतीति। अत्रोच्यते___अर्थ-प्रश्न-आपने ऊपर कहा है, कि मोहनीयकर्मका क्षय होनेपर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका क्षय होता है, और उससे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है, सो ठीक है। किन्तु इस विषयमें यह भी बताना चाहिये, कि मोहनीय आदि कर्मोंका क्षय होता किस तरहसे है ? इनके क्षय होनेमें क्या क्या कारण हैं ? अथवा किस प्रकारसे क्षय होता है. इसका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं।
सूत्र-बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥२॥ भाष्यम्-मिथ्यादर्शनादयो बन्धहेतवोऽभिहिताः। तेषामपि तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयादभावो भवति सम्यग्दर्शनादीनां चोत्पत्तिः। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तनिसर्गादधिगमाद्वेत्युक्तम् । एवं संवरसंवृतस्य महात्मनः सम्यग्व्यायामस्याभिनवस्य कर्मण उपचयो न भवति पूर्वोपचितस्य च यथोक्तैर्निर्जराहेतुभिरत्यन्तक्षयः । ततः सर्वद्रव्यपर्यायविषयं पत्मैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शनं प्राप्य शुद्धो बुद्धः सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । ततः प्रतनुशुभचतुःकर्मावशेष आयुः कर्मसंस्कारवशाद्विहरति ॥
अर्थमिथ्यादर्शन आदि बन्धके कारणोंको पहले बता चुके हैं। उनका ततत् आवरणीयकर्मका क्षय हो जानेसे अभाव हो जाता है, और सम्यग्दर्शनादिककी उत्पत्ति होती है । सम्यग्दर्शनका लक्षण भी उपर बताया जा चुका है, कि तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । तथा यह भी कहा गया है, कि वह दो प्रकारसे उत्पन्न होता है-निसर्गसे और अधिगमसे। इस प्रकारसे संवरके द्वारा संवृत महात्माके जिसका कि आचरण-व्यवहार सम्यग्व्यपदेशको प्राप्त हो चुका है, नवीन कोंका उपचय नहीं होता । तथा पहलेके उपचित कर्मोंका ऊपर बताये हुए निर्जराके कारणोंसे अत्यन्त क्षय हो जाता है । इसके होते ही सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण पर्यायोंको विषय करनेवाला परमैश्वर्यका धारक और अन्त रहित केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्रकट होता है, जिसके कि प्राप्त होते ही यह आत्मा शुद्ध बुद्ध सर्वज्ञ सर्वदर्शी, जिन और केवली कहा जाता है । इसके अनन्तर यह सकल परमात्मा जिसके कि अत्यन्त सूक्ष्म शुभ चारै कर्म अवशेष रह गये हैं, आयुकर्मके संस्कारवश जगत्में विहार किया करता है।
भावार्थ-आठवें अध्यायकी आदिमें मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योगको बन्धका कारण बता चुके हैं । बन्धके कारणका अभाव हो जानेको संवर कहते हैं। सम्यक्त्वको आवृत करनेवाले मिथ्यात्व अथवा दर्शनमोहनीय कमका अभाव हो जानेसे मिथ्यादर्शनका संवर होता है, जिससे कि निसर्ग अथवा अधिगमसे तत्त्वार्थके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका प्रादुर्भाव होता है। इसी प्रकार अविरति आदिके विषयमें भी समझना चाहिये । उन उन
१-चार अघाति कर्म-वेदनीय आयु नाम और गोत्र ।
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