SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशमोऽध्यायः। ऊपर जीवादिक सात तत्त्वोंमेंसे निर्जरापर्यन्त छह तत्त्वोंका वर्णन हो चुका । अब अन्तिम तत्व मोक्षका वर्णन अवसरप्राप्त है । अतएव मोक्षका वर्णन करना चाहिये, किन्तु मोक्षकी प्राप्ति केवलज्ञानपूर्वक हुआ करती है, अतएव पहले केवलज्ञान और उसके कारणका भी उल्लेख करते हैं। सूत्र-मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥ १ ॥ ___ भाष्यम्-मोहनीये क्षीणे ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायेषु क्षीणेषु च केवलज्ञानदर्शनमुत्पद्यते। आसां चतसृणां कर्मप्रकृतीनां क्षयः केवलस्य हेतुरिति । तत्क्षयादुत्पद्यत इति हेतौ पञ्चमीनिर्देशः। मोहक्षयादिति पृथक्करणं क्रमप्रसिद्धयर्थं यथा गम्येत पूर्व मोहनीयं कृत्स्नं क्षीयते ततोऽन्तर्मुहूर्त छद्मस्थवीतरागो भवति । ततोऽस्य ज्ञानदर्शनावरणान्तराय प्रकृतीनां तिसृणां युगपत्क्षयो भवति । ततः केवलमुत्पद्यते॥ अर्थ-मोहनीयकर्मका क्षय हो जानेपर और ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तरायकर्मका क्षय हो जानेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ करता है। इसका अर्थ यह है, कि इन चारों कर्मप्रकृतियोंका क्षय केवलज्ञान तथा केवलदर्शनकी उत्पत्तिों हेतु है । क्योंकि इस सूत्रमें क्षय शब्दके साथ जो पंचमी विभक्तिका निर्देश किया है, वह हेतुको दिखाता है-हेतु अर्थमें ही पंचमी विभक्तिका प्रयोग किया गया है। किन्तु चारों प्रकृतियोंका क्षय युगपत् न बताकर पृथक् पृथक् बताया है । “ मोहक्षयात् " ऐसा एक पद पृथक् दिखाया है और " ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात् " ऐसा दूसरा पद पृथक् दिखाया है । ऐसा न करके यदि "मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्" ऐसा कर दिया जाता, तो भी कोई हानि नहीं मालूम पड़ती । किन्तु वैसा न करके पृथक्करण जो किया है, उसका प्रयोजन यह है, कि क्रमकी सिद्धि हो जाय । जिससे यह मालूम हो जाय, कि पहले मोहनीयकर्मका पूर्णतया क्षय होता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्ततक छद्मस्थवीतराग होता है । इसके अनन्तर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मप्रकृतियोंका एक साथ क्षय हो जाता है । इन तीनोंका क्षय होते ही केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो जाता है। भावार्थ-चारों घातिकर्मोंके क्षयसे केवलज्ञान प्रकट होता है। किन्तु चारों कर्मोंमें भी हेतुहेतुमद्भाव है, जो कि इस प्रकार है, कि चारों से मोहनीयका क्षय होजानेपर शेष तीनोंका क्षय होता है, तथा मध्यमें अन्तर्मुहूर्तकाल छद्मस्थवीतरागताका रहता है। इस क्रमको दिखानेके लिये ही पृथक्करण किया है। इस क्रमसे चारों कर्मोंका क्षय हो जानेपर आर्हन्त्य अवस्था उत्पन्न होती है.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy